लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
आज के समय में बहुतायत लिपि विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्तप्राय की ओर अग्रसर हैं। इतिहास के पन्नो में बिहार लिपि के नाम से प्रसिद्ध कैथी लिपि आज पूरे विश्व से विलोपन के कगार पर पहुँच चुकी है। कैथी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कालांतर में इसे कायस्थों की लिपि कहा जाने लगा। पर इस बात का भी कोई ठोस सबूत नहीं प्राप्त होते हैं।

“कैथी लिपि का इतिहास” नामक किताब के लेखक भरैव लाल दास ( ग्राम - रौतपार ) बताते हैं , की सामान्यतः आज के समय में कैथी लिपि को मैथली लिपि मान लेते हैं। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। मिथिलाक्षर की अपनी एक अलग लिपि है, और कैथी एक अलग लिपि है।
बी.एल. दास कैथी लिपि के इतिहास के बारे में बताते हैं इस भाषा की उतपत्ति ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इसका नाम कैथी क्यों पड़ा इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।
लिपि के इतिहास में सबसे पहले ब्राह्मणी लिपि उसके बाद खरोष्ठी लिपि आती है। उसके बाद कुटिलाक्षय लिपि का आगमन हुआ। कुटिलाक्षय लिपि के बाद कैथी लिपि की शुरुआत हुई। कैथी लिपि का क्षेत्र काफी दूर तक फैला हुआ था। पूरा बिहार, बंगाल के मालदा, झारखंड, पूर्वी उत्तरप्रदेश तक इस लिपि को जानने वाले लोग मौजूद थे। उस समय कैथी लिपि से ही मगही, भोजपुरी, मैथली, अंगिका, बज्जिका एवं खड़ी भाषा लिखी जाती थी।
![]() |
भैरव लाल दास |
विद्वानों की लिपि संस्कृत थी। उस समय साक्षरता काफी कम थी। इस कारण कैथी लिपि का उपयोग सिर्फ साक्षर लोग कर पाते थे। विद्यालयों में इस लिपि की पढ़ाई करवाई जाती थी। हर साक्षर लोग इस लिपि को जानते थे।
1540 में शेर शाह सूरी को यह समझ में आ चुका था कि कैथी एक जनलिपि है। इस बात को ध्यान रखते हुए उसने दो कर्क की व्यवस्था की , जिसे कार्कऊम कहा गया। एक कार्कऊम का काम था दो रैयतों के बीच भूमि सम्बंधित दस्तावेज को कैथी लिपि में तैयार करना। दूसरे कार्कऊम का कार्य था मालजुगारी भत्ता को फ़ारसी लिपि में तैयार करना।
उसके बाद भारत में अंग्रेजो का अधिपत्य हो गया। 1890 ईसवी में कैथी लिपि को ख़त्म करने का कुचक्र चलाया गया। जबकि 1880 में एक अंग्रेज ग्रिडसन ने कैथी लिपि का फॉन्ट तैयार करवाया था। अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो कि नीति पर अंग्रेजो ने यह अपवाह फैला दी कि यह सिर्फ कर्ण कायस्थों की लिपि है। उस समय बही खाता देखने का कार्य कायस्थों का होता था।
अंग्रेजो ने आम लोगों के दिमाग में यह डालना शुरू किया कि कायस्थ इस लिपि का फायदा उठा कर बही खाते में कुछ भी लिख देते हैं। जिसे आम जनजीवन पढ़ने में असमर्थ रहते है। इस बात को तूल देते हुए ब्राह्मण समुदाय के लोगों ने इसका विरोध सबसे पहले किया। उस वक़्त ब्राह्मणों और कायस्थों में छतीस का आंकड़ा होता था। 1930-1935 आते - आते यह लिपि खत्म होने के कगार पर आ चुकी थी। आज़ाद भारत का पहला सेन्सस रिपोर्ट 1952 में आया जिसमें कैथी लिपि का कहीं भी जिक्र नहीं था। ( स्रोत - कैथी लिपि का इतिहास - लेखक बी.एल. दास )
यूनेस्को अपने रिपोर्ट में लिख चुकी है , “जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ - साथ एक पूरी संस्कृति और इतिहास विलुप्त हो जाती है"। कैथी का इस तरह अचानक खत्म हो जाना एक बहुत बड़ी मुसीबत बन के सामने आने वाली थी।
इस लिपि को जानने वाली पीढ़ी ने अपने आने पीढ़ी को इस लिपि से अवगत नहीं करवाया। और न ही इस लिपि में रखे दस्तावेजों को दूसरे लिपि में अनुवाद करवाया।
भारत में सबसे अधिक विवादित जमीन बिहार में है। इसका मुख्य कारण है कैथी लिपि। जमीन के सभी पुराने कागज़ात कैथी लिपि में है, जिसे पढ़ने वालों की संख्या न के बराबर है। 50%-80% तक पूरखों की ज़मीन के कागज़ कैथी लिपि में है।
जमीन से जुड़ा कोई भी विभाग इन कागज़ों को नहीं पढ़ पाता है। न बैंक इन कागज़ों को देख कर लोन दे पाती है। न ही ज़मीन विवाद के मामले में न्यायालय न्याय कर पाता है।
बी.एल. दास बताते हैं बिहार में तंत्र मंत्र की किताबें, लोक गीत यहाँ तक कि सूफी गीत भी कैथी लिपि में लिखी जा चुकी है। राजेन्द्र प्रसाद अपने पत्नी को कैथी लिपि में ही चिट्ठी लिखा करते थे। भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र को जानना है तो आपको कैथी जानना होगा। कर्ण कायस्थ के पँज्जी व्यवस्था की मूल प्रति भी कैथी लिपि में दरभंगा महाराज के संग्रालय में सुरक्षित है।
कैथी लिपि के संरक्षण के बात पर बी.एल. दास कहते हैं , संकरक्षण से पहले हमें एक बार इसके इतिहास को देखना होगा। 1826 में कैथी लिपि में बाइबिल प्रकाशित हुई थी। बाद में यही अँग्रेजी हुकूमत ने इसके खिलाफ लोगो मे विद्रोह की भावना जागृत की। कैथी लिपि को कर्ण कायस्थों की लिपि मान कर सबसे पहले पहले विरोध करने वाले ब्राह्मण भी इस लिपि में लिखते थे। सन 1917 में चंपारण आंदोलन में राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी के साथ कैथी लिपि में पत्राचार किया था। राजकुमार शुक्ल जाति के ब्राह्मण थे। मुस्लिम, हिन्दू और क्रिश्चयन तीनों इस भाषा के जानकार थे। यह पूर्ण रूप से झूठ था कि इस लिपि के जानकार सिर्फ कर्ण-कायस्थ हैं।
![]() |
कैथी लिपि |
कैथी लिपि को कैसे बचाया जाए इसके लिए बी.एल. दास जी ने 2007 - 2009 तक इसपर अध्यन किया। उसके बाद 2010 में “कैथी लिपि का इतिहास” नामक पुस्तक प्रकाशित करवायी। इस किताब में कैथी लिपि का इतिहास, कैथी का विकास यात्रा, कैथी लिपि को लेकर जो भ्रांतियां है उसके बारे जानकरी है।
2010 के बाद बी.एल. दास ने प्रण कर लिया इस लिपि को मरने नहीं देना है। कैथी लिपि से जुड़े तमाम दस्तावेजों को उन्होंने अनुवाद करना शुरू किया। एक हज़ार लोगों को मुफ्त में इस लिपि का ज्ञान देने का संकल्प कुया। आज के समय में वह तीन सौ पचास से अधिक लोगों को इस लिपि का ज्ञान दे चुके हैं। पटना के पुरातत्व विभाग में इस लिपि के जानकार हो इसका प्रयास हो रहा है। “सी- डैक” पुणे में कैथी लिपि का फॉन्ट कंप्यूटर पर विकसित हो सके इसके लिए बी.एल. दास जी वहाँ के संकरक्षक मंडल में भी शामिल है।
मिथिला यूनिवर्सिटी में इसकी पढ़ाई शुरू हो चुकी है। पटना यूनिवर्सिटी भी इस लिपि की पढ़ाई शुरू करने पर विचार कर रही है।
बी.एल. दास के अथक प्रयास से बिहार में ज्यूडिशियल परीक्षण में कैथी लिपि का परीक्षण की शुरुआत हो चुकी है। बिहार सरकार इसे अपनी राज्य लिपि घोषित कर दे , इसके लिए वह काफी मात्रा में बिहार सरकार को पत्र लिख चुके हैं।
इतने प्रयासों के बावजूद भी पटना के एक भी पुस्तकालयों में कैथी लिपि की किताबें नगण्य स्थिति में है। द्वारिका प्रकाशन के तहत बी.एल. दास जी की किताब प्रकाशित हुई थी। आज के समय उस प्रकाशक के पास भी किताब की एक प्रति भी मौजूद नहीं है।