Sunday, October 28, 2018

कैथी की कथा

लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
आज के समय में बहुतायत लिपि विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्तप्राय की ओर अग्रसर हैं। इतिहास के पन्नो में बिहार लिपि के नाम से प्रसिद्ध कैथी लिपि आज पूरे विश्व से विलोपन के कगार पर पहुँच चुकी है। कैथी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कालांतर में इसे कायस्थों की लिपि कहा जाने लगा। पर इस बात का भी कोई ठोस सबूत नहीं प्राप्त होते हैं।
कैथी लिपि की विशेषता यह थी उसमें ऊपर की ओर लकीरें नहीं होती थी। यह एक तरह से शॉर्टहैंड लिपि थी। इसे बाएं से दाएं की ओर लिखी जाती थी
कैथी लिपि का इतिहास” नामक किताब के लेखक  भरैव लाल दास ( ग्राम - रौतपार ) बताते हैं , की सामान्यतः आज के समय में कैथी लिपि को मैथली लिपि मान लेते हैं। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। मिथिलाक्षर की अपनी एक अलग लिपि है, और कैथी एक अलग लिपि है।
बी.एल. दास कैथी लिपि के इतिहास के बारे में बताते हैं इस भाषा की उतपत्ति ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इसका नाम कैथी क्यों पड़ा इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।
लिपि के इतिहास में सबसे पहले ब्राह्मणी लिपि उसके बाद खरोष्ठी लिपि आती है। उसके बाद कुटिलाक्षय लिपि का आगमन हुआ। कुटिलाक्षय लिपि के बाद कैथी लिपि की शुरुआत हुई। कैथी लिपि का क्षेत्र काफी दूर तक फैला हुआ था। पूरा बिहार, बंगाल के मालदा, झारखंड, पूर्वी उत्तरप्रदेश तक इस लिपि को जानने वाले लोग मौजूद थे। उस समय कैथी लिपि से ही मगही, भोजपुरी, मैथली, अंगिका, बज्जिका एवं खड़ी भाषा लिखी जाती थी।
भैरव लाल दास 
विद्वानों की लिपि संस्कृत थी। उस समय साक्षरता काफी कम थी। इस कारण कैथी लिपि का उपयोग सिर्फ साक्षर लोग कर पाते थे। विद्यालयों में इस लिपि की पढ़ाई करवाई जाती थी। हर साक्षर लोग इस लिपि को जानते थे।
1540 में शेर शाह सूरी को यह समझ में आ चुका था कि कैथी एक जनलिपि है। इस बात को ध्यान रखते हुए उसने दो कर्क की व्यवस्था की , जिसे कार्कऊम कहा गया। एक कार्कऊम का काम था दो रैयतों के बीच भूमि सम्बंधित दस्तावेज को कैथी लिपि में तैयार करना। दूसरे कार्कऊम का कार्य था मालजुगारी भत्ता को फ़ारसी लिपि में तैयार करना।

उसके बाद भारत में अंग्रेजो का अधिपत्य हो गया। 1890 ईसवी में कैथी लिपि को ख़त्म करने का कुचक्र चलाया गया। जबकि 1880 में एक अंग्रेज ग्रिडसन ने कैथी लिपि का फॉन्ट तैयार करवाया था। अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो कि नीति पर अंग्रेजो ने यह अपवाह फैला दी कि यह सिर्फ कर्ण कायस्थों की लिपि है। उस समय बही खाता देखने का कार्य कायस्थों का होता था।
अंग्रेजो ने आम लोगों के दिमाग में यह डालना शुरू किया कि कायस्थ इस लिपि का फायदा उठा कर बही खाते में कुछ भी लिख देते हैं। जिसे आम जनजीवन पढ़ने में असमर्थ रहते है।  इस बात को तूल देते हुए ब्राह्मण समुदाय के लोगों ने इसका विरोध सबसे पहले किया। उस वक़्त ब्राह्मणों और कायस्थों में छतीस का आंकड़ा होता था। 1930-1935 आते - आते यह लिपि खत्म होने के कगार पर आ चुकी थी। आज़ाद भारत का पहला सेन्सस रिपोर्ट 1952 में आया जिसमें कैथी लिपि का कहीं भी जिक्र नहीं था। ( स्रोत - कैथी लिपि का इतिहास - लेखक बी.एल. दास )
यूनेस्को अपने रिपोर्ट में लिख चुकी है , “जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ - साथ एक पूरी संस्कृति और इतिहास विलुप्त हो जाती है"। कैथी का इस तरह अचानक खत्म हो जाना एक बहुत बड़ी मुसीबत बन के सामने आने वाली थी।
इस लिपि को जानने वाली पीढ़ी ने अपने आने पीढ़ी को इस लिपि से अवगत नहीं करवाया। और न ही इस लिपि में रखे दस्तावेजों को दूसरे लिपि में अनुवाद करवाया।
भारत में सबसे अधिक विवादित जमीन बिहार में है। इसका मुख्य कारण है कैथी लिपि। जमीन के सभी पुराने कागज़ात कैथी लिपि में है, जिसे पढ़ने वालों की संख्या न के बराबर है। 50%-80% तक पूरखों की ज़मीन के कागज़ कैथी लिपि में है।
जमीन से जुड़ा कोई भी विभाग इन कागज़ों को नहीं पढ़ पाता है। न बैंक इन कागज़ों को देख कर लोन दे पाती है। न ही ज़मीन विवाद के मामले में न्यायालय न्याय कर पाता है।
बी.एल. दास बताते हैं बिहार में तंत्र मंत्र की किताबें, लोक गीत यहाँ तक कि सूफी गीत भी कैथी लिपि में लिखी जा चुकी है। राजेन्द्र प्रसाद अपने पत्नी को कैथी लिपि में ही चिट्ठी लिखा करते थे। भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र को जानना है तो आपको कैथी जानना होगा। कर्ण कायस्थ के पँज्जी व्यवस्था की मूल प्रति भी कैथी लिपि में दरभंगा महाराज के संग्रालय में सुरक्षित है।
कैथी लिपि के संरक्षण के बात पर  बी.एल. दास कहते हैं , संकरक्षण से पहले हमें एक बार इसके इतिहास को देखना होगा। 1826 में कैथी लिपि में बाइबिल प्रकाशित हुई थी। बाद में यही अँग्रेजी हुकूमत ने इसके खिलाफ लोगो मे विद्रोह की भावना जागृत की। कैथी लिपि को कर्ण कायस्थों की लिपि मान कर सबसे पहले पहले विरोध करने वाले ब्राह्मण भी इस लिपि में लिखते थे। सन 1917 में चंपारण आंदोलन में राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी के साथ कैथी लिपि में पत्राचार किया था। राजकुमार शुक्ल जाति के ब्राह्मण थे। मुस्लिम, हिन्दू और क्रिश्चयन तीनों इस भाषा के जानकार थे। यह पूर्ण रूप से झूठ था कि इस लिपि के जानकार सिर्फ कर्ण-कायस्थ हैं।
कैथी लिपि 
कैथी लिपि को कैसे बचाया जाए इसके लिए  बी.एल. दास जी ने 2007 - 2009 तक इसपर अध्यन किया। उसके बाद 2010 में “कैथी लिपि का इतिहास” नामक पुस्तक प्रकाशित करवायी। इस किताब में कैथी लिपि का इतिहास, कैथी का विकास यात्रा, कैथी लिपि को लेकर जो भ्रांतियां है उसके बारे जानकरी है।
2010 के बाद बी.एल. दास ने प्रण कर लिया इस लिपि को मरने नहीं देना है। कैथी लिपि से जुड़े तमाम दस्तावेजों को उन्होंने अनुवाद करना शुरू किया। एक हज़ार लोगों को मुफ्त में इस लिपि का ज्ञान देने का संकल्प कुया। आज के समय में वह तीन सौ पचास से अधिक लोगों को इस लिपि का ज्ञान दे चुके हैं। पटना के पुरातत्व विभाग में इस लिपि के जानकार हो इसका प्रयास हो रहा है। “सी- डैक” पुणे में कैथी लिपि का फॉन्ट कंप्यूटर पर विकसित हो सके इसके लिए बी.एल. दास जी वहाँ के संकरक्षक मंडल में भी शामिल है।
मिथिला यूनिवर्सिटी में इसकी पढ़ाई शुरू हो चुकी है। पटना यूनिवर्सिटी भी इस लिपि की पढ़ाई शुरू करने पर विचार कर रही है।
बी.एल. दास के अथक प्रयास से बिहार में ज्यूडिशियल परीक्षण में कैथी लिपि का परीक्षण की शुरुआत हो चुकी है। बिहार सरकार इसे अपनी राज्य लिपि घोषित कर दे , इसके लिए वह काफी मात्रा में बिहार सरकार को पत्र लिख चुके हैं।


इतने प्रयासों के बावजूद भी पटना के एक भी पुस्तकालयों में कैथी लिपि की किताबें नगण्य स्थिति में है। द्वारिका प्रकाशन के तहत बी.एल. दास जी की किताब  प्रकाशित हुई थी। आज के समय उस प्रकाशक के पास भी किताब की एक प्रति भी मौजूद नहीं है।

कर्ण कायस्थ की पंजी व्यवस्था


सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की अस्थि से बनी थी कायस्थ की काया। ब्रह्मा ने यह चित्र गुप्त तरीके से बनाया था, इसी कारण इस कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रखा गया। पद्म पुराण के अनुसार कायस्थ कुल के ईष्ट देव श्री चित्रगुप्त  जी के दो विवाह हुए। इनकी प्रथम पत्नी सूर्यदक्षिणा (जिन्हें नंदिनी भी कहते हैं) सूर्य-पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए-भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू। इनकी द्वितीय पत्नी ऐरावती (जिसे शोभावती भी कहते हैं) धर्मशर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र एवं अतिन्द्रिय कहलाए। इसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी किया गया है। चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ। इसी कारण कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है। इन बारह पुत्रों के दंश के अनुसार कायस्थ कुल में 12 शाखाएं हैं जो - श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीक, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण, कुलश्रेष्ठ नामों से चलती हैं। 

चित्रगुप्त के सातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र (वर्तमाआन कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण 360 अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।कर्ण कायस्थों की विशेष पद्धिति पंजी व्यवस्था के बारे में पन्नजीकार हेमंत लाल दास (लबानी, मधुबनी) मैथिली में लिखी जयदेव मिश्र की मैथिली गीतगोविन्द का सन्दर्भ देकर बताते हैं मिथिला के सबसे पहले राजा मिथि थे।
Maithli Geetgovind
फिर कर्नाट वंश के राजा नान्य देश के राजा नान्यदेव के शासनवर्ष में मिथिला का सम्बंध कर्नाटक जैसे राज्यों के साथ भी स्थापित हुआ। कर्नाटक के राजा ने अपने मंत्री श्रीधर दास को ग्यारवीं शताब्दी में मिथिला राज्य में भेजा। श्रीधर दास मिथिला में कर्ण कायस्थ के बिजपुरुष के रूप में स्थापित हुए। हेमंत लाल दास आगे बताते हैं श्रीधर दास अपने साथ 13 सगे संबंधियों के साथ मिथिला में आकर बसे। सन 1709 में कर्ण कायस्थों की पंजी व्यस्था की शुरुआत हुई। पंजी व्यस्था में हर एक परिवार के घराना, मूल, गोत्र इत्यादि की जानकारियां समेट कर रखी गयी। पंजी व्यवस्था का सबसे पहला मूल पत्र तारक पत्ता अर्थात भोजकपत्र पर लिखा गया। इन सभी बातों का जिक्र मधुबनी के एक गाँव अंधराठाढ़ी के भगवती स्थान के मंदिर के ऊपर लगे शिलालेख में दर्ज है।पंजी व्यवस्था का जब निर्माण हुआ तो कर्ण कायस्थ के 14 मूल तैयार हुए। इसका मुख्य कारण था श्रीधर दास अपने साथ 13 सगे संबंधियों को कर्नाटक से यहाँ लेकर आए थे।  श्रीधर दास खुद कर्नाटक के नवरमवाली से आये थे। मिथिला में इसे नरंगवाली नाम से उच्चारण किया गया। इसी तरह कर्नाटक के सोअनवारी को मिथिला में सोनेवार नाम से उच्चारण किया गया। 
Scan Copy of Geet Govind
हेमंत लाल दास कहते हैं ब्राह्मणों के सबसे उच्च कुल सूत्रीय ब्रहामणों के यहाँ भी पंजी व्यवस्था विद्यामान थी। कालांतर में यह व्यवस्था उनके यहाँ विलुप्त होते गयी। पंजी व्यवस्था की जरूरत क्यों है? इसके जवाब में हेमंत लाल दास कहते हैं इसकी सबसे अधिक जरूरत विवाह - संस्कार  के समय होती है। वर्तमान का उदाहरण देकर वह समझाते हैं कि आज के समय में दूसरे जातियों को अपना मूल तक भूल गए है। कहीं भी शादी संस्कार स्थापित किये जा रहे हैं। लेकिन कर्ण कायस्थों में पंजी व्यवस्था होने के कारण सभी चीज़े सामने आ जाती है। मान लीजिए कर्ण कायस्थ की किसी लड़की का शादी होने वाला है। उसके घर वाले रिश्ता लेकर किसी लड़के वाले के यहाँ जाएंगे। उस समय पंजी व्यवस्था की महत्वा बढ़ जाती है। पंजी व्यवस्था को देख कर मूल बताया जाता है। अगर लड़का और लड़की एक मूल के हुए तो वह शादी कभी नहीं होनी चाहिए। इस बात की पुष्टि विज्ञान भी करती है। उसके बाद लड़का-लड़की के सात पीढ़ियों को देखा जाता है। अगर सातों पीढ़ी में से किसी भी जगह सामानता पायी जाती है तो भी शादी नहीं हो सकती है। सात पीढ़ी में पिता एवं पितामह का मूल, लड़का - लड़की दोनों के मात्रिक(नानी गाँव), माँ मात्रिक, माता महिमात्रिक। नानी के मात्रिक, पितरमात्रिक, दादा के मात्रिक, दादी के मात्रिक। इन सब चीज़ों को मिलाया जाता है। कहीं भी सामानता होगी तो इसको आधिकार ठहरना कहा जाता है। शादी के वक़्त बायो-डाटा से अधिक महत्वपूर्ण यह सारी जानकारी होती है। जिसे एक कागज पर पन्नजीकार के द्वारा लिखवाया जाता है, जिसे परिचय-पत्र कहा जाता है। शादी से पहले सिध्यान्त होता है। जिसमें वर पक्ष और वधु पक्ष समाज के सामने लोटा उठा कर प्रमाणित करते है कि अब उन दोनों परिवारों के बीच संबंध स्थापित हो गया है। इसकी लिखित जानकारी दोनों पक्षों को पन्नजीकार के तरफ से दी जाती है। इसे मैथली में कट कहा जाता है। अगर इसके बाद दोनों पक्षों में किसी कारणवश कोई मनमुटाव होता है तो उस कट के आधार पर कोर्ट में अर्जी दी जा सकती है। सिध्यान्त कि समय दोनों पक्षों को अष्ठजन पत्री दी जाती है। जिसमें दोनों कुल की जानकारी वृस्तृत रूप में मौजूद रहती है।पंजी व्यवस्था की देखरेख के बारे में हेमंत लाल दास बताते हैं  दरभंगा के राजा कामेश्वर सिंह झा ने अपने शासनकाल में पंजी व्यवस्था को कैथी लिपि में संग्रहित करवा के अपने संग्रालय में रखवा दिया। इसके साथ ही दो कायस्थ परिवारों को इसकी जिम्मेदारी दी गयी इस व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए। वह दो परिवार है सिमरा गाँव के संजू परिवार और हैदरपुर के श्याम सुंदर के परिवार को। आज इस व्यवस्था को जानने वाले अधिक लोग है। फिर भी कर्ण कायस्थों के आम जनमानस को इसकी जानकारी नहीं होती है। इसलिए वह सब पन्नजीकार के पास आते हैं। पन्नजीकार का कार्य ही यही है वह पंजी व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाते रहे। हेमंत लाल दास वर्तमान स्थिति को देखकर थोड़े उदास भी दिखते हैं। वह बताते हैं आज ऐसे बहुत से पन्नजीकार है जो अधिक पैसे लेकर गलत परिचय-पत्र तैयार कर देते हैं। पांचवी पीढ़ी में अधिकार ठहरने के बावजूद भी शादी करवाया जा रहा है। वह बताते है अब तो एक मूल में भी लोग शादी की बात करते दिख रहे हैं। हेमंत लाल दास वर्तमान में कुरथौल पटना में रह कर वर्तमान पीढ़ी को पंजी व्यवस्था की जानकारियां देते रहते हैं। ताकि यह व्यवस्था कभी खत्म न हो सके।

Hemant Lal Das

Tuesday, October 16, 2018

तिथि - कन्नड़ भाषा फिल्म

poster of  "TITHI" movie.
समीक्षा:
पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी की तरफ से कन्नड़ भाषा की फिल्म तिथि का प्रदर्शित किया गया। 2016 में आयी इस फिल्म को गत वर्ष नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया था। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को काफी सराहा गया। फिल्म के लेखन और निर्देशन रामा रेड्डी के द्वारा किया गया है। फिल्म के सभी कलाकार इस क्षेत्र के पेशेवर नहीं थे। फिल्म की लोकेशन कर्नाटक के मंड्या जिला के एक छोटे से गाँव की है।
फिल्म में तीन पीढ़ी के अंतर को दिखाया गया है। चैथी पीढ़ी में एक छोटा सी ही सही लेकिन बड़ी खूबसूरत प्यार दिखाने में सफल हुई है।
बहुत ही साधारण कहानी को लेकर फिल्म बनाई गई है। पर इस फिल्म के निर्देशन ने इसमें जान डाल दी है। एक पल के लिए भी आपको अपने जगह से हिलने नहीं देगी। आपको देख कर यह लगेगा की सब कुछ सही हो रहा है, पर काफी सारे सवाल आपको परेशान करेंगे। जिसका जवाब नहीं मिलेगा, क्योंकि हम समाज में घिरे हुए है।
A scene from film Thithi
फिल्म की शुरुआत होती है सेंचुरी गौड़ा से जो 101 साल के है और उनका स्वर्गवास हो जाता है। शताब्दी दादा का बड़ा बेटा जो खुद 70- 80 साल का रहता है, वह गाँव का शराबी है जो दिन भर पागलों की तरह घूमते रहता है। यहाँ हिन्दू धर्म की विवशता को बहुत ही सही तरीके में दिखाया गया है , की चिता को मुखाग्नि बड़ा बेटा ही देगा। चाहे बड़ा बेटा जिस हाल में भी हो। बेटा आग दे कर फिर घुमन्तु जीवन जीने चला जाता है। भारत के किसी भी कोने में हिन्दू धर्म में कोई मरता है तो उसका परिवार भोज देने के लिए बाध्य हो जाता है। आप इसके खिलाफ सवाल नहीं कर सकते हैं। अगर आप सवाल करते है, तो आप अपने समाज को गलत ठहरा रहे है और समाज पर उंगली उठाने का मतलब बहुत बुरा होता है।
अब उस भोज की जिम्मेदारी आती है सेंचुरी गौड़ा के पोते पर और भोज की जो “तिथि” निर्धारित गाँव के ब्राह्मण के द्वारा साथ में उसको यह भी निर्देश मिलता है कि सेंचुरी गौड़ा 101 वर्ष के थे, तो कम से कम 500 लोगों को भोज में निमंत्रण भेजना होगा। वह इतने लोगों के भोज देने में असमर्थ है। लेकिन, समाज मे रहने के कारण वह बेबस है और साथ में बेबस हैं फिल्म को देखने वाले दर्शक वह जान रहे होते है कि यह गलत है। लेकिन, सच्चाई सभी जानते है कि समाज में रहना है तो भोज देना ही होगा। लोग मरने वाले की आत्मा शांति की बजाय मटन कैसा बना है यह चर्चा करते हैं। इसे फिल्म में देखना अपने समाज की याद दिलाता है।
उसका पोता उस भोज के लिए कैसे इंतजाम करता है इसी चीज को फिल्म में दिखाया गया है। हालात उसे इतना कमजोर बना देती है कि वह अपने जिंदा बाप का भी डेथ सर्टिफिकेट बनवा लेता है, ताकि भोज हो सके। एक दृश्य जहाँ दिमाग अटकता है। चैथी पीढ़ी का लड़का जो अपने मोबाइल पर ब्लू फिल्में देखता है और फिर प्यार में पड़ता है। यह दृश्य आज के युवा पीढ़ी को दर्शाती नजर आती है ।
(अभिलाष दत्ता)

लेख्य - मंजूषा की लघुकथा कार्यशाला



लघुकथा कलश का विमोप्चन 


पटना, 14.10.2018. आज के दौर में साहित्य की सबसे अच्छी विधा लघुकथा है। कम शब्दों में सारगर्भित रचना जो इंसानी मन को झकझोर दे वही लघुकथा है। उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक संस्था लेख्य-मंजूषा और अमन स्टूडियो के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित लघुकथा कार्यशाला में कही।
लघुकथा की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि बहुत लोग अंग्रेजी के सिनॉप्सिस को लघुकथा समझते हैं, तो कुछ लोग अंग्रेजी की शार्ट स्टोरी को लघुकथा समझते हैं। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। दोनों अलग-अलग भाषाएं हैं। लघुकथा अपने आप में एक पूरी विधा है।
इस कार्यशाला में मुख्य अतिथि प्रोफेसर अनिता राकेश ने कहा कि आज के युवा इस क्षेत्र में काफी अच्छा कर रहे हैं। लघुकथा के क्षेत्र में आज शोध के लिए बहुत सारी लिखित सामग्री उपलब्ध हैं।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार ध्रुव कुमार ने कार्यशाला में भाग ले रहे बच्चों को लघुकथा के शिल्प संरचना के पहलुओं से अवगत करवाया। लघुकथा के इतिहास के बारे में जानकारी दी।
लेख्य-मंजूषा की अध्य्क्ष विभा रानी श्रीवास्तव ने लघुकथा के पितामह डॉक्टर सतीशराज  पुष्करणा के आलेख को बच्चों के लिए पढ़ा।
इस मौके पर हरियाणा से छपने वाली पुस्तक “लघुकथा कलश” का विमोचन भी किया गया। इस पुस्तक में बिहार के तमाम लघुकथाकारों की लघुकथा प्रकाशित है। मिर्ज़ा ग़ालिब टीचर ट्रेनिंग कॉलेज की छात्राओं ने लघुकथा से संबंधित अपने सवाल किए।
दूसरे-तीसरे सत्र में सभी प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी लघुकथाओं का पाठ किया। वहीं अमन स्टूडियो और लेख्य-मंजूषा ने भविष्य में शार्ट फ़िल्म बनाने की बात कही। इस मौके पर भोजपुरी फ़िल्म ‘माई’ के स्क्रिप्ट राइटर भी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन शायर नसीम अख्तर ने किया।