“मौन ही मेरी भाषा है, दूर क्षितिज तक जाती है।
संकुचाता हूँ, घबराता हूँ, जो दिल में आता है वह बताता हूँ"।
संकुचाता हूँ, घबराता हूँ, जो दिल में आता है वह बताता हूँ"।
उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश ने लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम में कहीं। अपने उद्बोधन में उन्होंने बताया कि कविता मंच से निकले और श्रोता के दिल तक पहुँचे वही कविता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने उद्बोधन में मंच पर उपस्थित सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लेख्य-मंजूषा दिन दोगुनी रात चौगुनी अपने विकास पथ पर बढ़ रही है। कार्यक्रम की प्रतियोगिता पर रौशनी डालते हुए कहा कि प्रतियोगिता का अर्थ आपसी विवाद न हो कर साहित्य सृजन का कार्य होता है। इस बार प्रतियोगिता की रूपरेखा से उत्कृष्ट रचना सामने आयी हैं।
कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ ने अपने उद्बोधन में कहा कि साहित्य की साधना सबसे बड़ी तपस्या है। निराशा से घबराना नहीं है। काव्य शिल्प पर रौशनी डालते हुए उन्होंने बताया कि छंद युक्त कविताएं अधिक खूबसूरत बनते हैं। जबकि छंदमुक्त कविता में प्रभाव रखना अत्याधिक मुश्किल होता है।
लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019) “शब्द - प्रबंधन : साहित्य - सृजन” के तहत बैंगलोर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा अनेकानेक तांका का पाठ किये।
दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। शुभारंभ के बाद लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यक स्पंदन” का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के वक़्त मंच पर डॉ. सतीशराज पुष्करणा, राश दादा राश, विभा रानी श्रीवास्तव, नसीम अख्तर, डॉ. अनिल सुलभ, कृष्णा सिंह, भगवती प्रसाद द्विवेदी, इत्यादि मौजूद रहे।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने उद्बोधन में मंच पर उपस्थित सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लेख्य-मंजूषा दिन दोगुनी रात चौगुनी अपने विकास पथ पर बढ़ रही है। कार्यक्रम की प्रतियोगिता पर रौशनी डालते हुए कहा कि प्रतियोगिता का अर्थ आपसी विवाद न हो कर साहित्य सृजन का कार्य होता है। इस बार प्रतियोगिता की रूपरेखा से उत्कृष्ट रचना सामने आयी हैं।
कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ ने अपने उद्बोधन में कहा कि साहित्य की साधना सबसे बड़ी तपस्या है। निराशा से घबराना नहीं है। काव्य शिल्प पर रौशनी डालते हुए उन्होंने बताया कि छंद युक्त कविताएं अधिक खूबसूरत बनते हैं। जबकि छंदमुक्त कविता में प्रभाव रखना अत्याधिक मुश्किल होता है।
लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019) “शब्द - प्रबंधन : साहित्य - सृजन” के तहत बैंगलोर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा अनेकानेक तांका का पाठ किये।
दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। शुभारंभ के बाद लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यक स्पंदन” का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के वक़्त मंच पर डॉ. सतीशराज पुष्करणा, राश दादा राश, विभा रानी श्रीवास्तव, नसीम अख्तर, डॉ. अनिल सुलभ, कृष्णा सिंह, भगवती प्रसाद द्विवेदी, इत्यादि मौजूद रहे।
“शब्द-प्रबंधन:साहित्य-सृजन”
साहित्य में उच्चारण का अपना विशेष महत्व है। उच्चारण में कोई त्रुटि न हो इसके लिए लेख्य-मंजूषा के सदस्यों का 6-6 सदस्यों का 5 दल बनाया गया। दल दुष्यंत, दल नागार्जुन, दल दिनकर, दल निराला व दल प्रेमचंद नाम से बनाए गए। अस्थानीय सदस्यों के रचनाओं का पाठ स्थानीय सदस्यों ने किया।
शायर सुनील कुमार की अगुवाई में दल दुष्यंत ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रमशः दल निराला, दल प्रेमचंद , दल नागार्जुन व दल दिनकर ने द्वितीय , तृतीय, चतुर्थ और पाँचवा स्थान हासिल किया।
धन्यवाद ज्ञापन शायर सुनील कुमार ने किया। कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ, वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद डॉ. ध्रुव कुमार, आलोचक व कवयित्री प्रो. डॉ.अनिता राकेश, समाजसेवी ममता शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार नीलांशु रंजन, जे.पी. मिश्रा, जवाहर लाल प्रसाद, इत्यादि की उपस्थिति गरिमामय रही।
साहित्य में उच्चारण का अपना विशेष महत्व है। उच्चारण में कोई त्रुटि न हो इसके लिए लेख्य-मंजूषा के सदस्यों का 6-6 सदस्यों का 5 दल बनाया गया। दल दुष्यंत, दल नागार्जुन, दल दिनकर, दल निराला व दल प्रेमचंद नाम से बनाए गए। अस्थानीय सदस्यों के रचनाओं का पाठ स्थानीय सदस्यों ने किया।
शायर सुनील कुमार की अगुवाई में दल दुष्यंत ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रमशः दल निराला, दल प्रेमचंद , दल नागार्जुन व दल दिनकर ने द्वितीय , तृतीय, चतुर्थ और पाँचवा स्थान हासिल किया।
धन्यवाद ज्ञापन शायर सुनील कुमार ने किया। कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ, वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद डॉ. ध्रुव कुमार, आलोचक व कवयित्री प्रो. डॉ.अनिता राकेश, समाजसेवी ममता शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार नीलांशु रंजन, जे.पी. मिश्रा, जवाहर लाल प्रसाद, इत्यादि की उपस्थिति गरिमामय रही।
*–कृष्णा सिंह-* जमाना याद रखे जो,
कहानी हो तो ऐसी हो,
लुटा दें देश पर अपनी,
जवानी हो तो ऐसी हो।
कहानी हो तो ऐसी हो,
लुटा दें देश पर अपनी,
जवानी हो तो ऐसी हो।
*–डॉ. सतीशराज पुष्करणा–* जो बेशर्म है
दुनिया में वही तो
है कामयाब
चापलूसी का दौर
सच की कहाँ ठौर
दुनिया में वही तो
है कामयाब
चापलूसी का दौर
सच की कहाँ ठौर
*-सुनील कुमार-* ग़ज़ल हो तुम मेरी जाना तुम्हें ही गुनगुनायेंगे
तुम्हारे प्यार में जानम हरिक ग़म भूल जाएंगे
तुम्हारे प्यार में जानम हरिक ग़म भूल जाएंगे
*-शशि शर्मा खुशी-* साँसों की डोर जब,
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया?
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया?
*–प्रेमलता सिंह–* कानून के शिकंजे में
आने के बाद भी
उस शैतान के चेहरे पे
कुटिल मुस्कान देखकर
मेरे तन- बदन में
आग लग जाती है
तब लिखती हुँ-
मैं कोई कवयित्री नहीँ।
आने के बाद भी
उस शैतान के चेहरे पे
कुटिल मुस्कान देखकर
मेरे तन- बदन में
आग लग जाती है
तब लिखती हुँ-
मैं कोई कवयित्री नहीँ।
–अंकिता कुलश्रेष्ठ– चेतना हीन मानव विषाक्त
अमृत संदेश सुनाना है
मानवता का है धर्म प्रेम
ये जन-जन को समझाना है
अमृत संदेश सुनाना है
मानवता का है धर्म प्रेम
ये जन-जन को समझाना है
–सुबोध कुमार सिन्हा– धान के बिचड़े सरीखे
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से / लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को पुरखे मेरे
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से / लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को पुरखे मेरे
–शुशांत सिंह– एक सफ़र हुआ महबूब संग अनजानों की तरह
पर हम याद रखेंगे सालों साल दीवानों की तरह
पर हम याद रखेंगे सालों साल दीवानों की तरह
–मीरा प्रकाश– सड़क से गुजरते हैं हम
तो एक नजर देख लेते हैं उधर भी
उस फुटपाथ पर मेरी नजर चली ही जाती है
जहां हालात से हारे , बेहालात वाले लोग रहते हैं।
तो एक नजर देख लेते हैं उधर भी
उस फुटपाथ पर मेरी नजर चली ही जाती है
जहां हालात से हारे , बेहालात वाले लोग रहते हैं।
–वीणाश्री हेम्ब्रम– कुछ शब्द है कुछ मौन है ,अगर समझो तो
तुम्हारे लिए है ये, अगर समझो तो
नहीं जरूरत कोई शब्दों के व्याकरण देखने की।
वेदना समझ लेना ..बस ,मेरे क्षुब्ध ह्रदय की।
सुनना शब्दों के पीछे का मौन, नीरसता प्रलय सी।
अगर समझो तो.....
तुम्हारे लिए है ये, अगर समझो तो
नहीं जरूरत कोई शब्दों के व्याकरण देखने की।
वेदना समझ लेना ..बस ,मेरे क्षुब्ध ह्रदय की।
सुनना शब्दों के पीछे का मौन, नीरसता प्रलय सी।
अगर समझो तो.....
-साधना ठाकुर– पता नहीं आईने के सामने
कौन था ?
और आईने में अक्स किसका था ?
माँ तो इधर भी थी
माँ तो उधर भी थी
तन्हा वो भी थी
तन्हा मैं भी हूँ
कौन था ?
और आईने में अक्स किसका था ?
माँ तो इधर भी थी
माँ तो उधर भी थी
तन्हा वो भी थी
तन्हा मैं भी हूँ
–संजय कुमार 'संज'– फागुन वाला प्यार
सखी रे, फागुन वाला प्यार
कच्ची धूप महुआ का डेरा
अंजुरी भर-भर प्यार
पियरी सरसो का है घेरा
फागुन वाला प्यार
सखी रे, फागुन वाला प्यार
कच्ची धूप महुआ का डेरा
अंजुरी भर-भर प्यार
पियरी सरसो का है घेरा
फागुन वाला प्यार
–प्रभास सिंह– कभी देखा है! माँ गंगे के चरणों में पड़ी हुई, आस्था से उत्पर्ण व्यर्थ वस्तुओं को..
–अमृता सिन्हा– "ओ भारत माँ के अमर शहीदों,
हम कैसे नमन करें तुम्हारा,
कैसे क़र्ज़ चुकाएंगें हम
हो कैसे सफ़ल बलिदान तुम्हारा"
हम कैसे नमन करें तुम्हारा,
कैसे क़र्ज़ चुकाएंगें हम
हो कैसे सफ़ल बलिदान तुम्हारा"
–सरोज तिवारी– पाक तेरा नापाक इरादा और न बढ़ने देंगे हम
दहशतगर्दी में सेना को और न मरने देंगे हम
तेरी कायरता की बलि पर देश हमारा मौन रहा
ओ जल्लादों अब जघन्यता और न करने देंगे हम
दहशतगर्दी में सेना को और न मरने देंगे हम
तेरी कायरता की बलि पर देश हमारा मौन रहा
ओ जल्लादों अब जघन्यता और न करने देंगे हम
–डॉ. रबबान अली– दामन बचा के चले गए तुम
आँसुओ का ज्वार क्यू छोड़े जाते हो
पास न आओगे फिर कभी
यादों का संसार क्यो छोड़े जाते हो
आँसुओ का ज्वार क्यू छोड़े जाते हो
पास न आओगे फिर कभी
यादों का संसार क्यो छोड़े जाते हो
–सुधांशु कुमार–
समय से बगावत कर,
कब तक जीते रहोगे,
सुलगती आग भी,
ठंडी हो जाती है,
जब तक उसे ,
हवाओं की
आंच न मिले।"
समय से बगावत कर,
कब तक जीते रहोगे,
सुलगती आग भी,
ठंडी हो जाती है,
जब तक उसे ,
हवाओं की
आंच न मिले।"
–पम्मी सिंह'तृप्ति'–"भीड़ तंत्र पर बात चली हैं,एक छत के खातिर
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,
आह,वाह,अना,अलम और आस्ताँ के आस में
आजकल हुजूम की कारोबार खूब चली हैं
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,
आह,वाह,अना,अलम और आस्ताँ के आस में
आजकल हुजूम की कारोबार खूब चली हैं
–अनिता मिश्रा– देखो मैं नारी हूँ, नारी का सम्मान चाहती हूँ।
कोरी बातो से ही नहीं, हृदय से मान चाहती हूँ ।
कोरी बातो से ही नहीं, हृदय से मान चाहती हूँ ।
–कल्पना भट्ट– यह कैसी हवा
ज़हरीली, नफ़रत से भरी
विषकन्या क्या पुनः
जीवित हो उठी है
आतंकी गलियारों में!
ज़हरीली, नफ़रत से भरी
विषकन्या क्या पुनः
जीवित हो उठी है
आतंकी गलियारों में!
–सीमा रानी– मातृभूमि की चुनौतियाँ,
क्या कह रही, सुनना होगा ।
जागने का वक़्त है,
जागना और जगाना होगा।
क्या कह रही, सुनना होगा ।
जागने का वक़्त है,
जागना और जगाना होगा।
–मीनू झा– हर बार लहू से ही मुल्क ए इबारत ना लिखते
काश! फतह ही लिखते शहादत ना लिखते
ह्रदयहीन,क्रुर, घृणित, जाहिल है ये अपना दुश्मन
भाई बनकर रहता तो सच मानो अदावत ना लिखते
काश! फतह ही लिखते शहादत ना लिखते
ह्रदयहीन,क्रुर, घृणित, जाहिल है ये अपना दुश्मन
भाई बनकर रहता तो सच मानो अदावत ना लिखते
–मो. नसीम अख्तर– इधर शम्मे उलफत जलाई गई है।
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को ।
जो दीवार घर में उठाई गई है।
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को ।
जो दीवार घर में उठाई गई है।
–कमला अग्रवाल– नई सुबह होने तो दो,रिश्तों कीदूरी ना बढ़ओ ,कुछ तुम मान जाओ ,कुछ वे मान जायें ,ताप न रखो मन में,मनकी व्यथा को पिघलने तो दो
–मिनाक्षी सिंह– मैं आज की नारी
अपनी मर्यादा में रहकर
पुरानी कुरीतियों और जुल्मों की ,
जंजीरों को तोड़ने वाली
अपनी सहभागिता से
समाज और देश को
उन्नति प्रदान करने वाली
अपनी मर्यादा में रहकर
पुरानी कुरीतियों और जुल्मों की ,
जंजीरों को तोड़ने वाली
अपनी सहभागिता से
समाज और देश को
उन्नति प्रदान करने वाली
–अणिमा श्रीवास्तव–
पुलवामा में हुआ ये कैसा हादसा!?
धरती की हूक निकली,
आसमॉ भी था रूआसॉ।
पुलवामा में हुआ ये कैसा हादसा!?
धरती की हूक निकली,
आसमॉ भी था रूआसॉ।
–एकता कुमारी– मैं सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ।
पर आँखों पर पट्टी बांध, गांधारी बन कर नहीं।
मैं अपने पुत्रों को कुरुक्षेत्र रण मैदान नहीं भेजना चाहती हूँ ।
मैं उन्हें देश की सीमाओं पर भेजना चाहती हूँ।
पर आँखों पर पट्टी बांध, गांधारी बन कर नहीं।
मैं अपने पुत्रों को कुरुक्षेत्र रण मैदान नहीं भेजना चाहती हूँ ।
मैं उन्हें देश की सीमाओं पर भेजना चाहती हूँ।
–कुमारी स्मृति–"जब रक्त गिरता है वीर का,सरहद पर गुल मुस्काता है,
गर्वित होता है ये देश सारा,तिरंगा भी झुक जाता है।"
गर्वित होता है ये देश सारा,तिरंगा भी झुक जाता है।"
राजेन्द्र पुरोहित– "दर्द ढोने से कुछ नहीं होगा
सिर्फ़ रोने से कुछ नहीं होगा
अब्र बरसे तो कोई बात बने
बीज बोने से कुछ नहीं होगा"
सिर्फ़ रोने से कुछ नहीं होगा
अब्र बरसे तो कोई बात बने
बीज बोने से कुछ नहीं होगा"
–शाईस्ता अंजुम–"रिश्ते जताने लोग मेरे घर भी आऐंगे
फल पेड़ो पर होगें तो पत्थर भी आऐंगे
जब चल पड़ी हूँ मैं सफर पर तो हौसला रखो
सहारा कही कही पे काँटे उग आऐंगे।"
फल पेड़ो पर होगें तो पत्थर भी आऐंगे
जब चल पड़ी हूँ मैं सफर पर तो हौसला रखो
सहारा कही कही पे काँटे उग आऐंगे।"
ज्योति मिश्रा– मैं तो ख़ाके ग़म में ही दफ़न हूँ
मेरी गोर पे तू सदा न दे
हूँ बुझा हुआ सा च़राग मैं
मेरे पास आके हवा न दे।
मेरी गोर पे तू सदा न दे
हूँ बुझा हुआ सा च़राग मैं
मेरे पास आके हवा न दे।
–संजय कुमार सिंह– गहरी नदी में नाव की तरह,
तपती दुपहरी में छांव की तरह,
रूह को सुकून देती हो,
लगती हो बिलकुल मेरे गाँव की तरह ।
तपती दुपहरी में छांव की तरह,
रूह को सुकून देती हो,
लगती हो बिलकुल मेरे गाँव की तरह ।
रिपोर्ताज़
अभिलाष दत्ता 