हम सब एक समय पर रुके हुए हैं। जीवन बहने का नाम है, पर हमने खुद को कुछ खास पलों में रोक लिया है। अपने आँखों पर एक विशेष समय का चश्मा चढ़ा लिया है। हमें उस चश्मा को उतारना होगा। वर्ना हम बदलाव के साक्षी नहीं हो पाएंगे। परमेश्वर ने जीवन में परिवर्तन का नियम बनाया है तो हम खुद को किसी काल विशेष में क्यों रोके रखना चाहते हैं ?
किसी किताब में पढ़ा था कि एक आदमी जो गौतम बुद्ध से नाराज़ होकर उनपर थूक दिया। वहाँ मौजूद गौतम बुद्ध के सभी शिष्य नाराज़ हो गए। लेकिन गौतम बुद्ध ने अपने सभी शिष्यों को रोकते हुए और उन्हें समझाते हुए कहा , “नहीं इसमें इसकी गलती नहीं है। यह कुछ कहना चाहता है पर इसके पास शब्द नहीं है। इसलिए यह थूक से अपनी बात बताना चाहता है"।
वह आदमी वहाँ से चल गया पर पूरी रात उसे नींद नहीं आयी। दूसरे दिन वह आदमी रोते हुए जाकर गौतम बुद्ध के चरणों मे गिर गया। उसने गौतम बुद्ध से माफी माँगी, पर गौतम बुद्ध ने कहा, “कल जो आदमी थूक कर गया वह तुम नहीं हो। थूकने वाला माफी नहीं माँग सकता। और जो माफी माँग रहा है वह थूक नहीं सकता। दोनों घटनाओं में चौबीस घण्टे बीत चुके हैं। समय बढ़ चुका है, नदियाँ आगे की ओर बढ़ चुकी हैं। जो मैं कल था वह आज नहीं हूँ और जो तुम कल थे वो आज नहीं हो। तो फिर तुम किस बात की माफी माँग रहे हो और मैं तुम्हें उस गलती के लिए कैसे क्षमा कर दूँ जो तुमने मेरे साथ किया ही नहीं था।”
यहाँ दो बातें स्प्ष्ट होती है :-
पहला, समय हर पल बदलता है हम बीते हुए समय को नहीं बदल सकते और उसे याद रख कर भी कुछ हासिल नहीं कर सकते।
दूसरा, हमें अपने तमस पर काबू रख कर गौतम बुद्ध बनना चाहिए। अगर थूकने वाले व्यक्ति पर बुद्ध या उनके शिष्य नाराज़गी दिखा देते तो क्या वह आदमी एक रात में अपनी गलती पर पश्चाताप कर पाता? नहीं, उसके अंदर कटुता और बढ़ जाती।
हमें इस तरह के चश्मे को उतार देना है। क्योंकि आप ठगे जाएंगे। दो लड़के हैं एक को बताया गया ये पत्थर में परमेश्वर है दूसरे को बताया गया इसमें शैतान है। दोनों ने उसे अपने चश्में के हिसाब से जीवन भर देखा। दोनों लड़के समय के साथ अपनी-अपनी सोच के साथ मृत्यु को प्राप्त हो गए। उस पत्थर से ना कभी परमेश्वर उतपन्न हुए और ना ही वो शैतान। किसी ने पत्थर को पत्थर की तरह देखा ही नहीं। पत्थर हमेशा पत्थर ही रहा...
उसी तरह हर रोज़ नए लिखने वाले सोचते हैं कि ये आदमी (अभिलाष - उदाहरण स्वरूप) सीनियर लेखक हैं। यह हमारी रचनाओं पर समीक्षा करेगा, हमारी रचनाओं को पढ़ेगा। पर वह सीनियर लेखक जो अभिलाष है उसे आपने अभिलाष के तौर पर देखा ही नहीं। अभिलाष खुद परेशान है उसकी रचनाओं को कौन पढ़ेगा ? जैसे आप अभिलाष को सीनियर राइटर मान कर उसे अपना सब कुछ पढा देना चाहते हैं, ठीक उसी तरह अभिलाष के मन में भी कोई दूसरा लेखक सीनियर बना बैठा है। अभिलाष का वह सीनियर लेखक ये सोचता है , “क्या इसकी रचना है एकदम बेकार कौन पढ़े"?
ठीक यही चीज़ अभिलाष आपके रचना के बारे में सोच सकता है।
इसलिए मैं कहता हूँ उन चश्में को उतारिये और खुद जीवन के साथ बहना सीखिए।