इंसान की प्रवृति होती है, वह कभी भी एक चीज़ में खुश नहीं हो पाता है। वह हमेशा बदलाव खोजते रहता है। हम सब इस प्रक्रिया से गुजरते हैं। अधिकांश समय, लोगों से सुनते हुए मिल जाता है, “छुट्टी मिले तो कही घूम के आया जाए”।
लोग अपने दिनचर्या वाले जीवन से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।
नयेपन और शांति की तालाश में यूरोप के बहुत लोग साल भर के बचाए हुए पैसों से भारत और नेपाल जैसे जगह घूमने आते हैं।
वह चीज़ जिसे पाने की लालसा हो, वह मिल जाने के बाद उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है। जब मेरे पास काम नहीं था, तो पागलों की तरह काम ढूंढ रहा था। उस अज्ञातवास के दिनों में लिखने की आदत लग गयी। काफी सारी कहानियां लिख डाली। दो-तीन उपन्यास का प्लाट तक तैयार कर लिया था।
लेकिन, यह मेरी मंज़िल नहीं थी। मुझे नौकरी चाहिए थी। नौकरी मिली भी तो अपने पसंद लायक मिल गयी। पत्रकार की नौकरी। रोज़-रोज़ कुछ न कुछ लिखते ही रहना है। पर हुआ क्या? हर इंसान की तरह आकर्षण खत्म हो गया। 10 से 7 बजे की नौकरी। घर आते - आते आदमी बेड पर थक के बेहोश। सुबह आफिस के लिए देर न हो तो इसलिए आदमी सड़क पर इंसान हो कर रोबोट बन गया होता है। मुझे याद है 2015 का दुर्गापूजा मैं दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में था। मुझे पटना की बहुत याद आ रही थी। मन मसोस कर मैं दुर्गापुर में रह गया। होमटाउन पटना होने के कारण होम सिकनेस थी। लेकिन तीन साल में ही ऐसा क्या हुआ जो 2018 के दुर्गापूजा में अपना टिकट धनबाद करवा लिया। बेशक पटना मेरा अपना है, लेकिन दूसरों की तरह मैं भी ऊब चुका था। इसलिए दुर्गापूजा जैसे पर्व में पटना छोड़ कर धनबाद गया। नयापन और शान्ति के खोज में।
आज मुझे नौकरी मिल चुकी है। रोज़ लिख भी रहा हूँ। लेकिन जो मैं लिखता था, वह नहीं लिख पा रहा हूँ। तीन उपन्यास और दो कहानी का प्लाट पिछले एक साल से दिमाग में चल रहा है। लिखा कितना है “जीरो"।
अब तो दिमाग यह भी सोचने लगा है, कहीं नौकरी पाने के चक्कर में मैंने अपने आप को खो दिया क्या? मुझे कहानीकार या उपन्यासकार बनना था। क्या बन गया 9 घण्टे काम करने वाला कर्मचारी या रोबोट। जो घर आता है तो सो जाता है। सुबह फिर भागता है।
यह इंसान अब नौकरी से भी ऊब रहा है। क्योंकि मुझे अपने सारे काम खत्म करने है। बाकी बचे रचनाओं को खत्म करना है। उसके लिए समय चाहिए।
मेरी किताब आने वाली है। जानबूझकर कर मैं उसमें देरी करवा रहा हूँ। क्योंकि मेरा दिमाग अभी शांत नहीं है।
सब समय का फेर है।।
देखते है कब तक अपना बचा हुआ प्रोजेक्ट खत्म कर पाऊंगा?
i. परिकल्पना - दूसरा रक्षक (उपन्यास का दूसरा भाग)
ii. बदला-प्रचंड है ( कहानी)
iii. पहली सैलरी (कहानी)
iv. साइड A & साइड B (दूसरा उपन्यास)
v. छः रास्ते... (तीसरा उपन्यास)
लोग अपने दिनचर्या वाले जीवन से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।
नयेपन और शांति की तालाश में यूरोप के बहुत लोग साल भर के बचाए हुए पैसों से भारत और नेपाल जैसे जगह घूमने आते हैं।
वह चीज़ जिसे पाने की लालसा हो, वह मिल जाने के बाद उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है। जब मेरे पास काम नहीं था, तो पागलों की तरह काम ढूंढ रहा था। उस अज्ञातवास के दिनों में लिखने की आदत लग गयी। काफी सारी कहानियां लिख डाली। दो-तीन उपन्यास का प्लाट तक तैयार कर लिया था।
लेकिन, यह मेरी मंज़िल नहीं थी। मुझे नौकरी चाहिए थी। नौकरी मिली भी तो अपने पसंद लायक मिल गयी। पत्रकार की नौकरी। रोज़-रोज़ कुछ न कुछ लिखते ही रहना है। पर हुआ क्या? हर इंसान की तरह आकर्षण खत्म हो गया। 10 से 7 बजे की नौकरी। घर आते - आते आदमी बेड पर थक के बेहोश। सुबह आफिस के लिए देर न हो तो इसलिए आदमी सड़क पर इंसान हो कर रोबोट बन गया होता है। मुझे याद है 2015 का दुर्गापूजा मैं दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में था। मुझे पटना की बहुत याद आ रही थी। मन मसोस कर मैं दुर्गापुर में रह गया। होमटाउन पटना होने के कारण होम सिकनेस थी। लेकिन तीन साल में ही ऐसा क्या हुआ जो 2018 के दुर्गापूजा में अपना टिकट धनबाद करवा लिया। बेशक पटना मेरा अपना है, लेकिन दूसरों की तरह मैं भी ऊब चुका था। इसलिए दुर्गापूजा जैसे पर्व में पटना छोड़ कर धनबाद गया। नयापन और शान्ति के खोज में।
आज मुझे नौकरी मिल चुकी है। रोज़ लिख भी रहा हूँ। लेकिन जो मैं लिखता था, वह नहीं लिख पा रहा हूँ। तीन उपन्यास और दो कहानी का प्लाट पिछले एक साल से दिमाग में चल रहा है। लिखा कितना है “जीरो"।
अब तो दिमाग यह भी सोचने लगा है, कहीं नौकरी पाने के चक्कर में मैंने अपने आप को खो दिया क्या? मुझे कहानीकार या उपन्यासकार बनना था। क्या बन गया 9 घण्टे काम करने वाला कर्मचारी या रोबोट। जो घर आता है तो सो जाता है। सुबह फिर भागता है।
यह इंसान अब नौकरी से भी ऊब रहा है। क्योंकि मुझे अपने सारे काम खत्म करने है। बाकी बचे रचनाओं को खत्म करना है। उसके लिए समय चाहिए।
मेरी किताब आने वाली है। जानबूझकर कर मैं उसमें देरी करवा रहा हूँ। क्योंकि मेरा दिमाग अभी शांत नहीं है।
सब समय का फेर है।।
देखते है कब तक अपना बचा हुआ प्रोजेक्ट खत्म कर पाऊंगा?
i. परिकल्पना - दूसरा रक्षक (उपन्यास का दूसरा भाग)
ii. बदला-प्रचंड है ( कहानी)
iii. पहली सैलरी (कहानी)
iv. साइड A & साइड B (दूसरा उपन्यास)
v. छः रास्ते... (तीसरा उपन्यास)