Sunday, November 11, 2018

समय का फेर..

इंसान की प्रवृति होती है, वह कभी भी एक चीज़ में खुश नहीं हो पाता है। वह हमेशा बदलाव खोजते रहता है। हम सब इस प्रक्रिया से गुजरते हैं। अधिकांश समय, लोगों से सुनते हुए मिल जाता है, “छुट्टी मिले तो कही घूम के आया जाए”।
लोग अपने दिनचर्या वाले जीवन से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।
नयेपन और शांति की तालाश में यूरोप के बहुत लोग साल भर के बचाए हुए पैसों से भारत और नेपाल जैसे जगह घूमने आते हैं।
वह चीज़ जिसे पाने की लालसा हो, वह मिल जाने के बाद उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है। जब मेरे पास काम नहीं था, तो पागलों की तरह काम ढूंढ रहा था। उस अज्ञातवास के दिनों में लिखने की आदत लग गयी।  काफी सारी कहानियां लिख डाली। दो-तीन उपन्यास का प्लाट तक तैयार कर लिया था।
लेकिन, यह मेरी मंज़िल नहीं थी। मुझे नौकरी चाहिए थी। नौकरी मिली भी तो अपने पसंद लायक मिल गयी। पत्रकार की नौकरी। रोज़-रोज़ कुछ न कुछ लिखते ही रहना है। पर हुआ क्या? हर इंसान की तरह आकर्षण खत्म हो गया। 10 से 7 बजे की नौकरी। घर आते - आते आदमी बेड पर थक के बेहोश। सुबह आफिस के लिए देर न हो तो इसलिए आदमी सड़क पर इंसान हो कर रोबोट बन गया होता है। मुझे याद है 2015 का दुर्गापूजा मैं दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में था। मुझे पटना की बहुत याद आ रही थी। मन मसोस कर मैं दुर्गापुर में रह गया। होमटाउन पटना होने के कारण होम सिकनेस थी। लेकिन तीन साल में ही ऐसा क्या हुआ जो 2018 के दुर्गापूजा में अपना टिकट धनबाद करवा लिया। बेशक पटना मेरा अपना है, लेकिन दूसरों की तरह मैं भी ऊब चुका था। इसलिए दुर्गापूजा जैसे पर्व में पटना छोड़ कर धनबाद गया। नयापन और शान्ति के खोज में।
आज  मुझे नौकरी मिल चुकी है। रोज़ लिख भी रहा हूँ। लेकिन जो मैं लिखता था, वह नहीं लिख पा रहा हूँ। तीन उपन्यास और दो कहानी का प्लाट पिछले एक साल से दिमाग में चल रहा है। लिखा कितना है “जीरो"।
अब तो दिमाग यह भी सोचने लगा है, कहीं नौकरी पाने के चक्कर में मैंने अपने आप को खो दिया क्या? मुझे कहानीकार या उपन्यासकार बनना था। क्या बन गया 9 घण्टे काम करने वाला कर्मचारी या रोबोट। जो घर आता है तो सो जाता है। सुबह फिर भागता है।
यह इंसान अब नौकरी से भी ऊब रहा है। क्योंकि मुझे अपने सारे काम खत्म करने है। बाकी बचे रचनाओं को खत्म करना है। उसके लिए समय चाहिए।
मेरी किताब आने वाली है। जानबूझकर कर मैं उसमें देरी करवा रहा हूँ। क्योंकि मेरा दिमाग अभी शांत नहीं है।
सब समय का फेर है।।
देखते है कब तक अपना बचा हुआ प्रोजेक्ट खत्म कर पाऊंगा?
i. परिकल्पना - दूसरा रक्षक (उपन्यास का दूसरा भाग)
ii. बदला-प्रचंड है ( कहानी)
iii. पहली सैलरी (कहानी)
iv. साइड A & साइड B (दूसरा उपन्यास)
v. छः रास्ते... (तीसरा उपन्यास)

Thursday, November 8, 2018

भोजपुरी फिल्मों का सफ़र....

बचपन में हम सब अपने स्कूल के पुस्तक या किसी  सामान्य ज्ञान के पुस्तक में यह जरूर पढ़ें होंगे, पहली भोजपुरी फ़िल्म - ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’। 
poster of first bhojpuri film

पर कितनों ने देखा है?
पिछले 9 साल से विश्व संवाद केंद्र बिहार की स्क्रीनिंग सोसाइटी, ‘पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी’ के तरफ से हर शनिवार को एक फ़िल्म बड़े पर्दे (प्रोजेक्टर) पर फ्री में दिखाई जाती है। मकसद साफ है, बिहार की जनता में अच्छी फिल्में देखने का रुझान पैदा हो। फ़िल्मो का ज्ञान विकसित हो, ताकि दर्शक अच्छी फिल्में और बुरी फिल्मों में अंतर स्पष्ट करना जान सके।
screening of first bhojpuri movie in VSK Hall on 03.11.2018

इसी क्रम में पिछले शनिवार 03.11.2018 को पहली भोजपुरी फ़िल्म  ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’  प्रदर्शित की गई। 1963 में आई पहली भोजपुरी फ़िल्म एक घण्टे छियालीस मिनट की है। फ़िल्म को निर्देशित किया था कुंदन कुमार जी ने, कहानीकार और पटकथा लेखन नाजीर हुसैन ने किया। फ़िल्म को संगीत दिया चित्रगुप्त और शैलेंद्र ने। मुख्य कलाकार में कुमकुम, असीम कुमार इत्यादि थे।  
फ़िल्म में भोजपुरी अपनी मिठास के साथ परोसी गयी है। उस ज़माने में विधवा विवाह जैसे अत्यंत संवेदनशील मुद्दे को लेकर फ़िल्म बनाना वाक़ई एक चुनौतीपूर्ण कार्य था।  नायक-नायिका के प्यार को दिखाने के लिए दो पत्तों का मेल दिखाना उस ज़माने में ‘बिम्ब’ के इस्तेमाल को दिखाता है। सिनेमा से जुड़े लोग बिम्ब शब्द का अर्थ जानते होंगे। समाज का क्रूर रूप से नायक-नायिका का जुदा होना। नायिका का दूसरे से विवाह होना। विवाह उपरांत विधवा होना। फ़िल्म की कहानी यहाँ तक सामान्य ही लगती है। दूसरे हॉफ में फ़िल्म गहरे मोड़ पर खड़ी नज़र आती है। विधवा से कोठे की रौनक बनी फिल्म की नायिका का सामना जब अपने पागल बाप से होता है। उस समय नायिका के संवाद दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, ‘एक वेश्या सभ्य समाज की देन होती है’। 
कहानी सुखद अंत पर खत्म होती है। लेख़क और निर्माण अपने दर्शकों के मन और दिमाग पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म सुखद अंत पर खत्म होती है। दर्शक पहले ही काफी दुख झेल चुके हुए रहते हैं। इस फ़िल्म में आपको शोले फ़िल्म की ‘मौसी' भी देखने को मिलेगी।
1963 में बने इस फ़िल्म का अच्छा प्रिंट मिलना बहुत ही मुश्किल है। यह कमी जरूर महसूस हुई। किसी - किसी दृश्य में संवाद पर फ़िल्म का संगीत हावी होते हुए सुनाई देता है। फ़िल्म की ज्यादातर हिस्सों की शूटिंग बिहटा के आसपास हुई है। फ़िल्म में 60 के दशक का आरा स्टेशन, पटना स्टेशन, पटना का गोलघर इत्यादि देखने को मिलता है। उस वक़्त पटना की सड़कों पर बग्गी अधिक देखने को मिलती थी।
फ़िल्म के गीतों को आवाज़ स्वर कोकिला लता मंगेशकर और स्व. मोहम्मद रफी जी ने दिया था।
।।।
कोई भी सिने सोसाइटी में फ़िल्म देखने का सबसे बड़ा फायदा यही होता है, कि फ़िल्म देखने के बाद सदस्यों के द्वारा फ़िल्म पर एक खुली चर्चा होती है। इस तरह के चर्चा से काफी अंदर की जानकारी बाहर निकल कर आती है। एफ़टीआईआई के प्रोफेसर महेश ड्रिग्राजकर अपने तीन दिवसीय पटना दौरे में कहा था, “फिल्में हमेशा बड़े पर्दे पर या स्क्रीनिंग सोसाइटी में ही देखनी चाहिए”। देखने के बाद उसपर चर्चा जरूर होनी चाहिए। चर्चा होने से ज्ञानवृद्धि भी होती है और हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है। 
open discussion

।।
फ़िल्म खत्म होने के बाद इस फ़िल्म की भी चर्चा शुरू हुई। पता चला फ़िल्म की कहानी 1950 के लगभग तैयार हो चुकी थी। उस दौर में हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बन रही थी। इसी बीच बिहार की आञ्चलिक भाषा से फिल्म निर्माण की अवधारणा सबसे पहले अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनवाई की थी। मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने इस संदर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक कन्हैयालाल से सर्म्पर्क किया। श्री लाल ने अपने मित्र और हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नाजीर हुसैन को इसके लिए प्रेरित किया।
इसके बाद सन 1960 में राजेंद्र बाबू (स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद) को इस फ़िल्म की कहानी सुनाई गई। उसके बाद राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर इस फ़िल्म का निर्माण शुरू हुआ। 
दो साल अथक प्रयास के बाद अपनी मिठास लिए पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ बन के तैयार थी। इसकी पहली स्पेशल स्क्रीनिंग राजेन्द्र बाबू के लिए सदाकत आश्रम में की गई। इसके बाद 22 फरवरी 1963 को पटना के वीणा सिनेमा में रिलीज़ की गई। पूरे पाँच लाख में बनी फ़िल्म उस जमाने में तीस लाख की कमाई की थी।
भोजपुरी फ़िल्मो का वह स्वर्णिम दौर था। उसके बाद भोजपुरी में फिल्में लगातार आने लगी। भोजपुरी भाषा की दूसरी फिल्म “बिदेशिया” आयी। इस फ़िल्म ने भी सफलता के झंडे गाड़े। 62 से 70 के बीच भोजपुरी फ़िल्म पूरे देश में प्रसिद्ध हो रही थी। उसके बाद इसमें थोड़ी सी गिरावट देखने को मिली। सन 1980 में आई भोजपुरी फ़िल्म “दंगल” ने भोजपुरी भाषा को उठाने का काम तो किया, लेकिन अधिक सफल नहीं हो सका। उसके बाद भोजपुरी फिल्मों को लोग भूलते चले गए। 
उसके बाद दौर आया 2004 का जिसमें मनोज तिवारी अपनी पहली फ़िल्म “ससुरा बड़ा पईसावाला” लेकर दर्शकों के बीच आएं। वह फ़िल्म सफलता का परचम लहरा दिया। उसके बाद भोजपुरी भाषा में अभी तक फ़िल्मो का बनना जारी है। इन सब के बीच सोचने की बात है वर्तमान में बनी भोजपुरी फिल्में और 1963 क दशक में बनी पहली भोजपुरी फ़िल्म में क्या अंतर है? 
हमने अपने जड़ को भुला दिया। उस दौर में गीत लिखे जाते थे ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो, साइयाँ से कर दे मिलनवा’, आज लिखे जाते हैं ‘पियवा से पहले हमार रहलु’। भोजपुरी के स्वर्णिम दौर में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जी जैसे गायक अपनी आवाज़ देते थे। जिसे पूरा देश गुनगुनाता था। आज के भोजपुरी गीतों को हम सबके सामने गा भी नहीं सकते हैं। वह दौर था जब भोजपुरी फ़िल्म को देखने के लिए लोग बैलगाड़ियों में बैठकर आते थे। 
।।
भोजपुरी भाषा में बनने वाली फिल्मों का यह हस्र क्यों हुआ? इसके जवाब में इरशाद खान(स्क्रिप्ट-राइटर) बताते हैं, पहले फिल्में दर्शकों के हिसाब से बनती थी। आज वितरकों (डिस्ट्रीब्यूटरों) के हिसाब से बनने लगी है। वितरकों को केवल पैसे से मतलब होता है, इसलिए अच्छी फिल्में दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती है। वितरकों ने अपनी सोच हमारे दिमाग मे इतना डाल दिया है, कि हमने भी मान लिया है अश्लीलता ही भोजपुरी का पर्याय है। दरसल ऐसा है नहीं, हमे इस सोच से निकलना होगा। अच्छी फ़िल्मो का माँग करना होगा।
जानकारी के लिए बता दूँ, भोजपुरी की ऊंचाई आप इसी बात से लगा सकते हैं। बचपन मे सुना गीत ‘चंदा मामा दूर के' सबसे पहले भोजपुरी में गाई गयी थी। इसके बोल हैं ‘ऐ चंदा मामा आरे आवा, पारे आवा' , इसे आवाज़ दिया है  स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने। आप सब इसे यूट्यूब पर खोज के सुन सकते हैं।।।
।।।
अगले शनिवार को यानी 10.11.2018 को 1948 में बनी इटालियन भाषा की वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्म BICYCLE THIEVES प्रदर्शित की जाएगी। इस फ़िल्म को सैकड़ो बार देखकर सत्यजीत रे फ़िल्ममेकर बने थे।
next saturday BICYCLE THIEVES



अभिलाष दत्ता 

Tuesday, November 6, 2018

दीपावली : तब और अब...




रंगोली
दीवाली आ चुकी है। आज धनतेरस है  पिछले एक हफ्ते से टालते - टालते घर में रखे भगवान मंदिर को सफाई करने में लग गया। ईश्वर के प्रति मेरी भावना शून्य है। ऐसा इसलिए नही की मैं भगवान को नही मानता हूं या कुछ। दरसल मेरे मन में श्रद्धा के भाव उत्त्पन्न नहीं होते है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं।
कल की दीवाली और आज की दीवाली में क्या अंतर है? आज अपनापन नहीं है। मुझे याद है जब बाबा दादी थे उस समय दीवाली के समय पोता - पोतियों के मुँह से फरमाइश गिरने की देर रहती थी। अगले पल वह समान सामने मौजूद। वह दौर अलग था। संयुक्त परिवार की अवधारणा हुआ करती थी। घर के सभी लोग नए कपड़े खरीदते थे। सब मिल कर दीवाली की तैयारी महीनों से लग जाते थे। बच्चें दिन - दिन भर धूप में पठाके डाल कर उसकी रखवाली भी करते थे। भारतीय परंपरा ने हमें ये दिमाग में डाला बहने साफ- सफाई में माँ चाची की हाथ बटाएंगी। घर के लड़के पापा चाचा के साथ मार्केटिंग की जिम्मेदारी होती थी। वह अलग बात है असली मार्केटिंग मम्मी - पापा ही जा कर करते थे। उन्हें घर का बजट पता रहता था। उस बजट में भी वह सबके पसंद की सामग्री ले आते थे। खुशियों का त्योहार हुआ करता था दीवाली। पटाखों का भी वर्गीकरण भारतीय परिवारों में देखने को मिलता था। छोटे बच्चे बीड़ी बम, बड़े भैया हाइड्रो बम, उसके बाद पूजा कर के आंगन में आई घर की महिला मंडली। पापा और चाचा की जिम्मेदारी होती थी, महिलाओं के लिए अनार, चकरी , छुरछुरी जैसे पटाखे बचा के रखें। घर में नई बहू आयी है तो उनके लिए भी हाइड्रो बम बचा के रखना होता था। नयी भाभी या नयी चाची घर के बच्चों के साथ पहले आवाज़ वाले बम का मजा फिर तस्वीर के लिए सभी के साथ अनार और चकरी। यह क्रम चलते रहता था। दूसरे दिन घर के बच्चे जल्दी उठ कर मुआयन पर निकलते थे। रात में कौन - कौन सा पटाखा नहीं जला उसे खोजा जाए।
अब सब कुछ बदल गया है। बाबा दादी वाली पीढ़ी कब की खत्म हो गयी। अब उनका जगह माँ - पापा लोग ले चुके हैं। लेकिन उन्हें पोता - पोतियों का सुख प्राप्त नही है। मेरे जानकारी में एक सिन्हा जी है सरकारी डॉक्टर हुआ करते थे। अब अवकाशप्राप्त है। बेटा सब पढ़ के जेंटलमैन हुए तो दूसरे राज्यों में चले गए। छुट्टी मिलती नहीं है। इसी बीच सिन्हा जी से भेंट हुई। किसी बिजली मिस्त्री से अपने बंगले पर लाइटिंग करवा रहे थे। खूबसूरत बंगला उजले रंग का उसी रंग का लाइटिंग। लेकिन देखने वाला कौन? सिर्फ सिन्हा जी और उनकी धर्मपत्नी। 
।।।
बचपन में मुझे पटाखों से बहुत लगाव था। बाबा सबके पसंद के पटाखे लाते थे। मुझे वह साँप वाला बहुत पसंद था। जिसमें माचिस लगाने से उसमें से सांप की आकृतियां निकलती थी। उसमें धुंए की मात्रा की अत्याधिक रहती थी। धीरे - धीरे युवावस्था में आने लगा। 2013 में घर बटवारें का एक अजीब सा धक्का लगा। उसके बाद से सब पर्व से ही मन उचट सा गया। क्या दीवाली - क्या होली? सब एक जैसा। 
इन वर्षों ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। घर का सबसे ज़िद्दी लड़का का तमगा मिला हुआ था। आज दीवाली के दिन घर सफाई में लगा हुआ है। मंदिर साफ - सफाई उसे सजाना। फिर दोपहर दो बजे से रात के नौ बजे तक दीवाली की अकेले खरीददारी करना। धनतेरस पर एक कटलरी सेट खरीदा। मुझे तो यह भी नहीं पता था उसे कटलरी सेट बोला जाता है। 
कटलरी सेट 
अकेलापन काफी कुछ सीखा देता है जीवन में। बेटा के साथ - साथ घर की बेटी भी बन जाता हूँ। 
खैर अब पुरानी कड़वाहट को भुला कर सब एक हैं। फिर भी कहीं - कहीं उसके अंश मौजूद है। 
पटाखे अंतिम बार कब फोड़े थे, यह बात स्मृतिपटल पर विलुप्त हो गयी है। वह कहते हैं ना आप जिस परिस्थिति में होते हैं, आप उसी में ढलने लगते हो। मेरे पास बारह साल से एक झबरा ( पामेरियन) कुतिया है। मेरे लिए तो अभी भी वह मेरी बच्ची है। लेकिन सही मायने में अब वह बूढ़ी हो चुकी है। पटाखों के आवाज़ से एकदम डरी सहमी रहती है। वही स्थिति मेरे साथ है। तेज आवाज़ वालो पटाखों से मुझे भी डर लगता है। 
आज बाज़ार जाते समय कुछ बच्चें तेज़ आवाज़ वाले पटाखे फोड़ रहे थे। वह आवाज़ सुन कर मेरे मुँह से निकल गया , “कितने जाहिल बच्चें है”। वैसे बच्चें कभी जाहिल नहीं होते हैं। जाहिल वाली पंक्ति तो डर के कारण मुँह से निकल आया। 
ऊपर की पंक्ति में लिखा था, बाबा - दादी हम पोता - पोतियों की सभी माँगे पूरी कर देते थे। उस समय पैसों की अहमियत नहीं पता रहती थी। अब अहमियत पता है। इसलिए धनतेरस में मुझे जो चाहिए था मैंने मटिया दिया। मेरे लिए तो दीवाली वही टीवी रूम में टीवी देखते हुए बीत जानी है। मैं और ब्राऊनी (मेरी पालतू कुतिया) और मेरा मोबाइल। जिसमें पीयूष मिश्रा का गाना - “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है”।
।।।।
आप सभी को मेरी ओर से शुभ दीवाली। पटाखे फोड़ना है तो  जम के फोड़िये नहीं फोड़ना है तो मत फोड़िये।
घर का मंदिर की सजावट आप सब को कैसी लगी जरूर लिखियेगा।
मंदिर 


अभिलाष दत्ता