बचपन में हम सब अपने स्कूल के पुस्तक या किसी सामान्य ज्ञान के पुस्तक में यह जरूर पढ़ें होंगे, पहली भोजपुरी फ़िल्म - ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’।
पर कितनों ने देखा है?
पिछले 9 साल से विश्व संवाद केंद्र बिहार की स्क्रीनिंग सोसाइटी, ‘पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी’ के तरफ से हर शनिवार को एक फ़िल्म बड़े पर्दे (प्रोजेक्टर) पर फ्री में दिखाई जाती है। मकसद साफ है, बिहार की जनता में अच्छी फिल्में देखने का रुझान पैदा हो। फ़िल्मो का ज्ञान विकसित हो, ताकि दर्शक अच्छी फिल्में और बुरी फिल्मों में अंतर स्पष्ट करना जान सके।
इसी क्रम में पिछले शनिवार 03.11.2018 को पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ प्रदर्शित की गई। 1963 में आई पहली भोजपुरी फ़िल्म एक घण्टे छियालीस मिनट की है। फ़िल्म को निर्देशित किया था कुंदन कुमार जी ने, कहानीकार और पटकथा लेखन नाजीर हुसैन ने किया। फ़िल्म को संगीत दिया चित्रगुप्त और शैलेंद्र ने। मुख्य कलाकार में कुमकुम, असीम कुमार इत्यादि थे।
फ़िल्म में भोजपुरी अपनी मिठास के साथ परोसी गयी है। उस ज़माने में विधवा विवाह जैसे अत्यंत संवेदनशील मुद्दे को लेकर फ़िल्म बनाना वाक़ई एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। नायक-नायिका के प्यार को दिखाने के लिए दो पत्तों का मेल दिखाना उस ज़माने में ‘बिम्ब’ के इस्तेमाल को दिखाता है। सिनेमा से जुड़े लोग बिम्ब शब्द का अर्थ जानते होंगे। समाज का क्रूर रूप से नायक-नायिका का जुदा होना। नायिका का दूसरे से विवाह होना। विवाह उपरांत विधवा होना। फ़िल्म की कहानी यहाँ तक सामान्य ही लगती है। दूसरे हॉफ में फ़िल्म गहरे मोड़ पर खड़ी नज़र आती है। विधवा से कोठे की रौनक बनी फिल्म की नायिका का सामना जब अपने पागल बाप से होता है। उस समय नायिका के संवाद दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, ‘एक वेश्या सभ्य समाज की देन होती है’।
कहानी सुखद अंत पर खत्म होती है। लेख़क और निर्माण अपने दर्शकों के मन और दिमाग पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म सुखद अंत पर खत्म होती है। दर्शक पहले ही काफी दुख झेल चुके हुए रहते हैं। इस फ़िल्म में आपको शोले फ़िल्म की ‘मौसी' भी देखने को मिलेगी।
1963 में बने इस फ़िल्म का अच्छा प्रिंट मिलना बहुत ही मुश्किल है। यह कमी जरूर महसूस हुई। किसी - किसी दृश्य में संवाद पर फ़िल्म का संगीत हावी होते हुए सुनाई देता है। फ़िल्म की ज्यादातर हिस्सों की शूटिंग बिहटा के आसपास हुई है। फ़िल्म में 60 के दशक का आरा स्टेशन, पटना स्टेशन, पटना का गोलघर इत्यादि देखने को मिलता है। उस वक़्त पटना की सड़कों पर बग्गी अधिक देखने को मिलती थी।
फ़िल्म के गीतों को आवाज़ स्वर कोकिला लता मंगेशकर और स्व. मोहम्मद रफी जी ने दिया था।
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कोई भी सिने सोसाइटी में फ़िल्म देखने का सबसे बड़ा फायदा यही होता है, कि फ़िल्म देखने के बाद सदस्यों के द्वारा फ़िल्म पर एक खुली चर्चा होती है। इस तरह के चर्चा से काफी अंदर की जानकारी बाहर निकल कर आती है। एफ़टीआईआई के प्रोफेसर महेश ड्रिग्राजकर अपने तीन दिवसीय पटना दौरे में कहा था, “फिल्में हमेशा बड़े पर्दे पर या स्क्रीनिंग सोसाइटी में ही देखनी चाहिए”। देखने के बाद उसपर चर्चा जरूर होनी चाहिए। चर्चा होने से ज्ञानवृद्धि भी होती है और हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
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फ़िल्म खत्म होने के बाद इस फ़िल्म की भी चर्चा शुरू हुई। पता चला फ़िल्म की कहानी 1950 के लगभग तैयार हो चुकी थी। उस दौर में हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बन रही थी। इसी बीच बिहार की आञ्चलिक भाषा से फिल्म निर्माण की अवधारणा सबसे पहले अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनवाई की थी। मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने इस संदर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक कन्हैयालाल से सर्म्पर्क किया। श्री लाल ने अपने मित्र और हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नाजीर हुसैन को इसके लिए प्रेरित किया।
इसके बाद सन 1960 में राजेंद्र बाबू (स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद) को इस फ़िल्म की कहानी सुनाई गई। उसके बाद राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर इस फ़िल्म का निर्माण शुरू हुआ।
दो साल अथक प्रयास के बाद अपनी मिठास लिए पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ बन के तैयार थी। इसकी पहली स्पेशल स्क्रीनिंग राजेन्द्र बाबू के लिए सदाकत आश्रम में की गई। इसके बाद 22 फरवरी 1963 को पटना के वीणा सिनेमा में रिलीज़ की गई। पूरे पाँच लाख में बनी फ़िल्म उस जमाने में तीस लाख की कमाई की थी।
भोजपुरी फ़िल्मो का वह स्वर्णिम दौर था। उसके बाद भोजपुरी में फिल्में लगातार आने लगी। भोजपुरी भाषा की दूसरी फिल्म “बिदेशिया” आयी। इस फ़िल्म ने भी सफलता के झंडे गाड़े। 62 से 70 के बीच भोजपुरी फ़िल्म पूरे देश में प्रसिद्ध हो रही थी। उसके बाद इसमें थोड़ी सी गिरावट देखने को मिली। सन 1980 में आई भोजपुरी फ़िल्म “दंगल” ने भोजपुरी भाषा को उठाने का काम तो किया, लेकिन अधिक सफल नहीं हो सका। उसके बाद भोजपुरी फिल्मों को लोग भूलते चले गए।
उसके बाद दौर आया 2004 का जिसमें मनोज तिवारी अपनी पहली फ़िल्म “ससुरा बड़ा पईसावाला” लेकर दर्शकों के बीच आएं। वह फ़िल्म सफलता का परचम लहरा दिया। उसके बाद भोजपुरी भाषा में अभी तक फ़िल्मो का बनना जारी है। इन सब के बीच सोचने की बात है वर्तमान में बनी भोजपुरी फिल्में और 1963 क दशक में बनी पहली भोजपुरी फ़िल्म में क्या अंतर है?
हमने अपने जड़ को भुला दिया। उस दौर में गीत लिखे जाते थे ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो, साइयाँ से कर दे मिलनवा’, आज लिखे जाते हैं ‘पियवा से पहले हमार रहलु’। भोजपुरी के स्वर्णिम दौर में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जी जैसे गायक अपनी आवाज़ देते थे। जिसे पूरा देश गुनगुनाता था। आज के भोजपुरी गीतों को हम सबके सामने गा भी नहीं सकते हैं। वह दौर था जब भोजपुरी फ़िल्म को देखने के लिए लोग बैलगाड़ियों में बैठकर आते थे।
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भोजपुरी भाषा में बनने वाली फिल्मों का यह हस्र क्यों हुआ? इसके जवाब में इरशाद खान(स्क्रिप्ट-राइटर) बताते हैं, पहले फिल्में दर्शकों के हिसाब से बनती थी। आज वितरकों (डिस्ट्रीब्यूटरों) के हिसाब से बनने लगी है। वितरकों को केवल पैसे से मतलब होता है, इसलिए अच्छी फिल्में दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती है। वितरकों ने अपनी सोच हमारे दिमाग मे इतना डाल दिया है, कि हमने भी मान लिया है अश्लीलता ही भोजपुरी का पर्याय है। दरसल ऐसा है नहीं, हमे इस सोच से निकलना होगा। अच्छी फ़िल्मो का माँग करना होगा।
जानकारी के लिए बता दूँ, भोजपुरी की ऊंचाई आप इसी बात से लगा सकते हैं। बचपन मे सुना गीत ‘चंदा मामा दूर के' सबसे पहले भोजपुरी में गाई गयी थी। इसके बोल हैं ‘ऐ चंदा मामा आरे आवा, पारे आवा' , इसे आवाज़ दिया है स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने। आप सब इसे यूट्यूब पर खोज के सुन सकते हैं।।।
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अगले शनिवार को यानी 10.11.2018 को 1948 में बनी इटालियन भाषा की वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्म BICYCLE THIEVES प्रदर्शित की जाएगी। इस फ़िल्म को सैकड़ो बार देखकर सत्यजीत रे फ़िल्ममेकर बने थे।
अभिलाष दत्ता
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poster of first bhojpuri film |
पर कितनों ने देखा है?
पिछले 9 साल से विश्व संवाद केंद्र बिहार की स्क्रीनिंग सोसाइटी, ‘पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी’ के तरफ से हर शनिवार को एक फ़िल्म बड़े पर्दे (प्रोजेक्टर) पर फ्री में दिखाई जाती है। मकसद साफ है, बिहार की जनता में अच्छी फिल्में देखने का रुझान पैदा हो। फ़िल्मो का ज्ञान विकसित हो, ताकि दर्शक अच्छी फिल्में और बुरी फिल्मों में अंतर स्पष्ट करना जान सके।
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screening of first bhojpuri movie in VSK Hall on 03.11.2018 |
इसी क्रम में पिछले शनिवार 03.11.2018 को पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ प्रदर्शित की गई। 1963 में आई पहली भोजपुरी फ़िल्म एक घण्टे छियालीस मिनट की है। फ़िल्म को निर्देशित किया था कुंदन कुमार जी ने, कहानीकार और पटकथा लेखन नाजीर हुसैन ने किया। फ़िल्म को संगीत दिया चित्रगुप्त और शैलेंद्र ने। मुख्य कलाकार में कुमकुम, असीम कुमार इत्यादि थे।
फ़िल्म में भोजपुरी अपनी मिठास के साथ परोसी गयी है। उस ज़माने में विधवा विवाह जैसे अत्यंत संवेदनशील मुद्दे को लेकर फ़िल्म बनाना वाक़ई एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। नायक-नायिका के प्यार को दिखाने के लिए दो पत्तों का मेल दिखाना उस ज़माने में ‘बिम्ब’ के इस्तेमाल को दिखाता है। सिनेमा से जुड़े लोग बिम्ब शब्द का अर्थ जानते होंगे। समाज का क्रूर रूप से नायक-नायिका का जुदा होना। नायिका का दूसरे से विवाह होना। विवाह उपरांत विधवा होना। फ़िल्म की कहानी यहाँ तक सामान्य ही लगती है। दूसरे हॉफ में फ़िल्म गहरे मोड़ पर खड़ी नज़र आती है। विधवा से कोठे की रौनक बनी फिल्म की नायिका का सामना जब अपने पागल बाप से होता है। उस समय नायिका के संवाद दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, ‘एक वेश्या सभ्य समाज की देन होती है’।
कहानी सुखद अंत पर खत्म होती है। लेख़क और निर्माण अपने दर्शकों के मन और दिमाग पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म सुखद अंत पर खत्म होती है। दर्शक पहले ही काफी दुख झेल चुके हुए रहते हैं। इस फ़िल्म में आपको शोले फ़िल्म की ‘मौसी' भी देखने को मिलेगी।
1963 में बने इस फ़िल्म का अच्छा प्रिंट मिलना बहुत ही मुश्किल है। यह कमी जरूर महसूस हुई। किसी - किसी दृश्य में संवाद पर फ़िल्म का संगीत हावी होते हुए सुनाई देता है। फ़िल्म की ज्यादातर हिस्सों की शूटिंग बिहटा के आसपास हुई है। फ़िल्म में 60 के दशक का आरा स्टेशन, पटना स्टेशन, पटना का गोलघर इत्यादि देखने को मिलता है। उस वक़्त पटना की सड़कों पर बग्गी अधिक देखने को मिलती थी।
फ़िल्म के गीतों को आवाज़ स्वर कोकिला लता मंगेशकर और स्व. मोहम्मद रफी जी ने दिया था।
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कोई भी सिने सोसाइटी में फ़िल्म देखने का सबसे बड़ा फायदा यही होता है, कि फ़िल्म देखने के बाद सदस्यों के द्वारा फ़िल्म पर एक खुली चर्चा होती है। इस तरह के चर्चा से काफी अंदर की जानकारी बाहर निकल कर आती है। एफ़टीआईआई के प्रोफेसर महेश ड्रिग्राजकर अपने तीन दिवसीय पटना दौरे में कहा था, “फिल्में हमेशा बड़े पर्दे पर या स्क्रीनिंग सोसाइटी में ही देखनी चाहिए”। देखने के बाद उसपर चर्चा जरूर होनी चाहिए। चर्चा होने से ज्ञानवृद्धि भी होती है और हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है।
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फ़िल्म खत्म होने के बाद इस फ़िल्म की भी चर्चा शुरू हुई। पता चला फ़िल्म की कहानी 1950 के लगभग तैयार हो चुकी थी। उस दौर में हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बन रही थी। इसी बीच बिहार की आञ्चलिक भाषा से फिल्म निर्माण की अवधारणा सबसे पहले अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनवाई की थी। मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने इस संदर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक कन्हैयालाल से सर्म्पर्क किया। श्री लाल ने अपने मित्र और हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नाजीर हुसैन को इसके लिए प्रेरित किया।
इसके बाद सन 1960 में राजेंद्र बाबू (स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद) को इस फ़िल्म की कहानी सुनाई गई। उसके बाद राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर इस फ़िल्म का निर्माण शुरू हुआ।
दो साल अथक प्रयास के बाद अपनी मिठास लिए पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ बन के तैयार थी। इसकी पहली स्पेशल स्क्रीनिंग राजेन्द्र बाबू के लिए सदाकत आश्रम में की गई। इसके बाद 22 फरवरी 1963 को पटना के वीणा सिनेमा में रिलीज़ की गई। पूरे पाँच लाख में बनी फ़िल्म उस जमाने में तीस लाख की कमाई की थी।
भोजपुरी फ़िल्मो का वह स्वर्णिम दौर था। उसके बाद भोजपुरी में फिल्में लगातार आने लगी। भोजपुरी भाषा की दूसरी फिल्म “बिदेशिया” आयी। इस फ़िल्म ने भी सफलता के झंडे गाड़े। 62 से 70 के बीच भोजपुरी फ़िल्म पूरे देश में प्रसिद्ध हो रही थी। उसके बाद इसमें थोड़ी सी गिरावट देखने को मिली। सन 1980 में आई भोजपुरी फ़िल्म “दंगल” ने भोजपुरी भाषा को उठाने का काम तो किया, लेकिन अधिक सफल नहीं हो सका। उसके बाद भोजपुरी फिल्मों को लोग भूलते चले गए।
उसके बाद दौर आया 2004 का जिसमें मनोज तिवारी अपनी पहली फ़िल्म “ससुरा बड़ा पईसावाला” लेकर दर्शकों के बीच आएं। वह फ़िल्म सफलता का परचम लहरा दिया। उसके बाद भोजपुरी भाषा में अभी तक फ़िल्मो का बनना जारी है। इन सब के बीच सोचने की बात है वर्तमान में बनी भोजपुरी फिल्में और 1963 क दशक में बनी पहली भोजपुरी फ़िल्म में क्या अंतर है?
हमने अपने जड़ को भुला दिया। उस दौर में गीत लिखे जाते थे ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो, साइयाँ से कर दे मिलनवा’, आज लिखे जाते हैं ‘पियवा से पहले हमार रहलु’। भोजपुरी के स्वर्णिम दौर में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जी जैसे गायक अपनी आवाज़ देते थे। जिसे पूरा देश गुनगुनाता था। आज के भोजपुरी गीतों को हम सबके सामने गा भी नहीं सकते हैं। वह दौर था जब भोजपुरी फ़िल्म को देखने के लिए लोग बैलगाड़ियों में बैठकर आते थे।
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भोजपुरी भाषा में बनने वाली फिल्मों का यह हस्र क्यों हुआ? इसके जवाब में इरशाद खान(स्क्रिप्ट-राइटर) बताते हैं, पहले फिल्में दर्शकों के हिसाब से बनती थी। आज वितरकों (डिस्ट्रीब्यूटरों) के हिसाब से बनने लगी है। वितरकों को केवल पैसे से मतलब होता है, इसलिए अच्छी फिल्में दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती है। वितरकों ने अपनी सोच हमारे दिमाग मे इतना डाल दिया है, कि हमने भी मान लिया है अश्लीलता ही भोजपुरी का पर्याय है। दरसल ऐसा है नहीं, हमे इस सोच से निकलना होगा। अच्छी फ़िल्मो का माँग करना होगा।
जानकारी के लिए बता दूँ, भोजपुरी की ऊंचाई आप इसी बात से लगा सकते हैं। बचपन मे सुना गीत ‘चंदा मामा दूर के' सबसे पहले भोजपुरी में गाई गयी थी। इसके बोल हैं ‘ऐ चंदा मामा आरे आवा, पारे आवा' , इसे आवाज़ दिया है स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने। आप सब इसे यूट्यूब पर खोज के सुन सकते हैं।।।
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अगले शनिवार को यानी 10.11.2018 को 1948 में बनी इटालियन भाषा की वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्म BICYCLE THIEVES प्रदर्शित की जाएगी। इस फ़िल्म को सैकड़ो बार देखकर सत्यजीत रे फ़िल्ममेकर बने थे।
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next saturday BICYCLE THIEVES |
अभिलाष दत्ता
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