Wednesday, September 25, 2019
पटना और पत्रकारिता...
Sunday, May 12, 2019
मातृ दिवस : प्रतिपल नमन (लेख्य - मंजूषा)
“घर के अंदर ही माँ पूरी पाठशाला है”। उक्त पंक्तियां आदरणीया कृष्णा सिंह जी ने साहित्यिक संस्था लेख्य मंजूषा, पटना के त्रैमासिक कार्यक्रम “मातृ दिवस: हर पल नमन" के अवसर में कही। अपने व्यक्तव मे कृष्णा सिंह जी ने मंच से कहा कि माँ हमारे जीवन का अस्तित्व है। माँ के लिए तो पूरा जीवन कम पड़ जाता है। हमारा हर दिन माँ के लिए होता है।
मुख्य अतिथि के तौर पर वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने अपने लेख्य मंजूषा की पत्रिका “साहित्यक स्पंदन" में प्रकाशित स्वर्गीय प्रेमचंद जी की रचना ईदगाह पर रोशनी डालते हुए कहा कि अगर आज हर इंसान खुद को हमीद बना ले तो वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं पड़ेगी।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने इस मौके पर कहा कि आज की सभी रचना माँ को समर्पित थी। आज के दिवस किसी की रचना को जज नहीं किया जा सकता है। जो बातें आज रचना में सुनने को मिली है उसे हमें अपने जीवन मे आत्मसात करना चाहिए।
लेख्य- मंजूषा की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा कि मैं एक माँ हूँ, स्त्री जब माँ बनती है तो जीवन पर माँ ही बन कर रह जाती है। संस्था के सभी सदस्य मुझे माँ कह कर ही सम्बोधन करते हैं।
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आज के कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए पहले दीप प्रज्वलित करने के बाद, साहित्यिक स्पंदन पत्रिका का लोकार्पण किया गया।
मौके पर महशूर गजलकार समीर परिमल ने चुनावी दौर पर व्यंग्य करते हुए अपनी कविता का पाठ करते हुए कहा कि एक वोट के दम पर सरकार बदलता हूँ।
कार्यक्रम में निलंशु रंजन, आयाम संस्था के अध्यक्ष गणेश जी भागी, समाजसेवी रेशमा प्रसाद जी उपस्थित थी।
मंच संचालन ईशानी सरकार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन रवि श्रीवास्तव ने किया।
आज के कार्यक्रम में जो कविताएं पढ़ी गयी। उनकी पंक्तियां:-
01. *सीमा रानी*- बरसों पहले छोड़ गयीं वो
ढेरों सपने तोड़ गयीं वो
मुख अपना मोड़ गयीं वो
तन्हा मुझको छोड़ गयीं वो
02. *प्रियंका श्रीवास्तव "शुभ्र"*- "माँ मात्र एक संबोधन नहीं
ये शब्द करे तन मन स्पंदन
हृदय का है प्यार उद्गार
जिसका न होता कोई आभार।"
03. *राजेन्द्र पुरोहित* – तुम सोचते हो
वो सिर्फ नौ महीने सहती है
प्रसव पीड़ा
सिर्फ नौ महीने...
नहीं
कदापि नहीं...
04. - *रब्बान अली*– दुनिया के सारे रिश्तो से अफजल है मेरी माँ
ये कायनात तेरे दम से है मेरी
प्यारी माँ
05. *पम्मी सिंह 'तृप्ति'* – बाकी सब जहाँ के रवायतों में सहेज रखा ..
पर.. जब भी घिरती हूँ दुविधाओं में
माँ..सच तेरी, बहुत कमी खलती है,
06. *श्रुत कीर्ति अग्रवाल* - जब-जब चोट लगी मेरे तन को, याद तुम्हीं क्यों आईं माँ?
हर संकट हर दुख में मैंने,
तेरी ही रट क्यों लगाई माँ?
07. *शशि शर्मा 'खुशी'*- अपने दुख का,
साया भी नहीं पड़ने देती
मगर मेरे हर दुख को
समेट लेती अपने आँचल में
08. *श्वेता सिन्हा* - गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति
सुरभित मन मुस्काया
09. *राजकांता राज* – मेरी प्यारी माँ तुझे सलाम तूझे सलाम
मुझे खाना खिलाया छोड़ सब काम
मेरी न्यारी माँ तूझे सलाम तूझे सलाम
मुझे ड्रेस पहनाया बिना देखे दाम
10. *ज्योति मिश्रा* – है एक भाव ममता का बस; जग समझे इसकी भाषा है
वह शब्दकोश भी मिला नहीं , जिसमें मां की परिभाषा है ।।
11. *सुबोध कुमार सिन्हा* -गढ़ा है अम्मा तुमने मुझे
नौ माह तक अपने गर्भ में
जैसे गढ़ी होगी
उत्कृष्ट शिल्पकारियाँ
बौद्ध भिक्षुओं ने कभी
अजंता-एलोरा की गुफाओं में
12. *शाईसता अंजूम* - माँ की यादे
माँ तेरे आँचल की छाँव न रही
कौन मेरी खौरियत की दुआ करेगा
13. *कृष्णा सिंह* - माँ के प्यार में गंगा की धार है
माँ तो सौम्य व शुचि संस्कार है
सुर, नर, मुनि की स्तुति का सार है
माँ! ईश्वर का दिया सर्वोत्तम उपहार है।
14. *अणिमा श्रीवास्तव* - बस इसी में सिमटी है, तेरी इबादत।
क्या तुझसे बढकर भी हो सकती है कोई नेमत
खुदा ने भी जिसे दुआओं में माँगा
तू वो मन्नत है।
यू हीं नहीं कहते तेरे पैंरो तले जन्नत है।
15. *सिन्धु कुमारी* -देकर वह अनमोल धन , लेती एक न भेंट ।
माँ स्नेहिल-सी चासनी , रग-रग देती फेंट।।
16. *मधुरेश नारायण* - ओ ! माँ ! मुझे क्यूँ इतना तू सताती है?
क्यूँ मुझसे इतनी दूर चली जाती है ?
जब तक रही तू,तेरा क़द्र ना किया
जाने के बाद तेरी याद बहुत आती है !
17. *डॉ. पूनम देवा* -कैसे भूल लूँ माँ तुम्हारा वो प्यार- दुलार,
तुम्ही ने तो दिया था
हम सब को संस्कार,
तुम ही थी,हमारे घर की
फूल " सदाबहार" ।
18. *मीरा प्रकाश* - यह उनका घर है
उन्हीं का घर है ,
लेकिन फिर भी कभी मां को ये घर
मायका सा लगने दो।
19. *कमला अग्रवाल* -सृजनता की पहली कड़ी है माँ ,
नौ महीने कोख में रख ,
असहय वेदना को सह ,
हमें धरती पे लाती है माँ ॥
20. *प्रेमलता सिंह* (2) –माँ !आज भी मुझे वो दिन याद है, जब तू रोया करती थी ।
तकलीफ मुझे भी होती थी
तेरे रोने की आवाज मैंने भी सूनी थी।
21. *मीनाक्षी सिंह* -सरस शीतल तरल तरंग / माँ के आँचल का हर रंग।
जितना सुकून यहां मिलता है
सारे जहां मे कहाँ मिलता हैं।
22. *अमृता सिन्हा* -काश तेरे आँचल तले
तमाम उम्र गुज़र जाती
थाम कर ऊँगली, ओ माँ
तू बचपन मेरा, फिर ले आती
23. *सुधांशु कुमार* –माँ की ममता
माँ का आँचल
प्यार स्नेह का सागर ।।
माँ का आशीर्वाद
भगवान का प्रसाद ।।
माँ की मीठी बोली
कानों की लोरी ।।
माँ में ही संसार
माँ में ही जीवनसार।।
24. *सुनील कुमार* –माँ का आँचल धरती अंबर लगता है
रूप सलोना स्नेह सरोवर लगता है
प्रेम शजर उसने ही दिल में है बोया
दिल उसका परियों सा सुंदर लगता है
25. *संजय कुमार 'संज'* -पिता की सत्ता और
शासन की संप्रभुता में
राज तुम्हारा यूँ भी रहा
कभी हँसी तू महफ़िल में
कभी अकेले आॅ॑सू भी बहा
Tuesday, May 7, 2019
हैप्पी फ्रेंडशिप डे
07 मई 2011
हाँ आज ही का तो दिन था। हाँ आज की तो दिन था। जब हम पहली बार मिले थे। मई की चिलचिलाती गर्मी थी, कंप्यूटर क्लास था, शाम का वक़्त वक़्त था, नया बैच था। टैली सीखने गए थे। घर में खाली ही बैठे थे उन दिनों। वैसे भी इंटर में आर्ट्स लेने वालों को घर वाले “घर की मुर्गी के बराबर” ही समझते हैं।
हाँ तो वह आयी,
कितनी शालीनता थी उसके चेहरे पर। मुझे याद है पहले क्लास में 8 लड़कियां और 3 लड़के थे। चलो लड़कियों की संख्या यहाँ तो अधिक थी। उसकी बड़ी बहन भी थी बैच में। आर्ट्स स्ट्रीम होने की वजह से कॉमर्स स्ट्रीम की पढ़ाई मेरे समझ से बाहर हो रही थी। वह भी आर्ट्स स्ट्रीम की ही स्टूडेंट थी।
घर में फालतू बैठे रहने के कारण मैं क्लास आधे घण्टे पहले चला आया करता था। घर में उपन्यास छिपा के पढ़ना पड़ता था। एक कोचिंग ही था जहाँ बिना किसी डर के उपन्यास पढ़ पाता था। वह रोज़ मुझे उपन्यास पढ़ते हुए देखती थी। उन दिनों भारतीय लेखकों की अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का चस्का लगा हुआ था। उन दिनों, अंग्रेजी उपन्यास सामने वाले पर एक अलग छाप छोड़ता था।
एक दिन उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने मुझसे पूछ डाला - आप हमेशा उपन्यास पढ़ते हैं। मैंने हाँ में जवाब दिया। तब उन्होंने बताया कि उन्हें भी उपन्यास पढ़ने का मन करता है। मेरे कुछ बोलने से पहले उनकी बड़ी बहन ने मुझसे कहा - आप हमें भी दे सकते हैं उपन्यास पढ़ने के लिए।
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उस दिन वह उपन्यास मेरे बैग में वापस न जाकर, उनके लेडीज पर्स में छुप कर चला गया। 5 दिन हो गए पर उपन्यास वापस आयी नहीं। मुझे बेचैनी हो रही थी, पर मैंने कुछ कहा नहीं। अगले दिन उपन्यास मेरे हाथ में था। उनकी बड़ी बहन ने बताया - क्या बताऊँ अभिलाष जी एक पेज पढ़ने के बाद ही मेरा सर दर्द करने लगा। ये तो छोटी ने इसको रात - रात भर जग के पढ़ी है। मोबाइल की रोशनी जला कर।
मैं छोटी वाली की तरफ देख कर मुस्कुरा दिया। उनके चेहरे पर भी मुस्कान थी। उसके बाद उपन्यास पर चर्चा होने लगी।।
अब ये रोज़ का सिलसिला हो गया। उपन्यासों के जरिये हमारी दोस्ती आगे बढ़ रही थी। उपन्यास इस दोस्ती में सूत्रधार बन रहे थे।
हम दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो चुकी थी। वह मेरे बारे में क्या सोचती ये तो मुझे आज तक पता नहीं चला। पर मेरे दिल के किसी कोने में एक मीठी घन्टी बजी थी।
एक दिन उन्होंने बताया कि वह कविताएं लिखती हैं। तभी पीछे से उनकी बड़ी बहन ने कहा - अभिलाष जी दो डायरी लिख के रखी है।
मेरे मुँह से केवल एक शब्द निकला - अरे वाह! क्या बात है।
मैंने उनसे कहा - क्या आप अपनी कविता मुझे नहीं देंगी पढ़ने?
उनकी बड़ी बहन ने कहा - किसी को नहीं दी है पढ़ने। सिर्फ मैंने पढ़ी है।
यह सुनकर मैंने कहा - अगर कोई बात है तो कोई दवाब नहीं है डायरी देने की।।
अगले दिन वह डायरी मेरे बैग में थी। उनकी बड़ी बहन ने हँसते हुए कहा - अरे वाह अभिलाष जी! आप तो नसीब वाले निकले। आप मेरे बाद दूसरे इंसान है जो इस डायरी को पढ़ने वाले हैं। मुझे तो उतना समझ नहीं आया। लेकिन अच्छा लिखती है। पढ़ के बताइएगा।
वह डायरी तकरीबन मैंने 1 महीने अपने पास रखा था। मैंने सारी कविता पढ़ डाली थी।
मेरे पास कोई शब्द नहीं थे। केवल यही दिमाग में था कि कितना टैलेंट है इस लड़की है। अगर अपने दिल पर हाथ रखूं तो यही कविताएं मुझे लेख़क बनने की प्रेरणास्रोत थी और है।
मैंने उन्हें डायरी वापस कर दिया। केवल एक शब्द कहा - लिखना छोड़ना मत!
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4 महीने का कोर्स था। जो अब ख़त्म होने वाला था। क्लास खत्म होने से एक हफ्ते पहले ही मैं क्लास छोड़ने वाला था। ये बात पूरे क्लास को पता थी। जिस दिन मेरा अंतिम क्लास था, वह एक सादा कॉपी मेरे पास लेकर आयी और कहा - अभिलाष आप इसपर अपना ऑटोग्राफ दीजिये।
मेरा मुँह खुला रह गया था। मैंने उनसे कहा - मैंने जीवन में ऐसा कोई बड़ा कार्य नहीं किया है। जो आप मेरे ऑटोग्राफ लें।
उन्होंने सिर्फ इतना कहा - आप बहुत अच्छे इंसान है। आप बहुत आगे जाएंगे।
मैंने अपना ऑटोग्राफ दे दिया। जीवन का पहला ऑटोग्राफ दिया था मैंने।
ऑटोग्राफ लेने के बाद उन्होंने कहा था - इसे जीवनभर अपने पास रखूंगी।।
पीछे उसके बड़ी बहन का हो - हो सुनाई दे रहा था। जाते - जाते उन्होंने अपना नंबर मुझे दिया। उन दिनों लड़कियों के नंबर मिलना पारस पत्थर मिलने जितना बराबर था।
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मैं जा चुका था।
अब हमारी दोस्ती फ़ोन पर नया रूप ले रही थी। उनके बर्थडे पर सबसे पहले मैसेज भेजना और मेरे बर्थडे पर उनका सबसे पहले मैसेज आना।
इसके बाद मैं पढ़ाई के लिए बंगाल चला गया। लेकिन संपर्क कभी टूटा नहीं। दोस्त थे और आगे भी दोस्त रहे।
अवसाद के दिनों में भी वह हिम्मत देती रहीं। पटना वापस आने के बाद 6-7 महीनों में एक - आध बार पार्क में मिलने चला जाता था। जिस बेंच पर हम बैठते, उसके एक सिरे पर हम दूसरे सिरे पर वह। और बोलने के लिए कुछ भी नहीं।
अवसादों ने मुझे लेख़क बना दिया। और इसी दौर में वह साहित्य से दूर हुई। या यूँ कहें , हम दोनों एक दूसरे से दूर हुए। उन्हें अपनी भविष्य ठीक करनी थी। और मैं खुद को साहित्य के सागर में झोंकने को तैयार था।
हमारी दोस्ती सिर्फ एक फॉर्मेलिटी बन कर रह चुकी थी। उनके मन में क्या था , ये कभी न जान सका। खुद हिम्मत कर के कभी बोल या कुछ पूछ नहीं सका।
आज हमारी फ्रेंडशिप डे है। सिर्फ एक व्हाट्सएप मैसेज...☺️
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अंत में आप सब ये जरूर सोच रहे होंगे मैंने कुछ बोला या पूछा क्यों नहीं।
तो इसका जवाब ये है-
“ये बिहार है,
और हमारी जातियाँ अलग थी”।।
Monday, March 11, 2019
लेख्य-मंजूषा त्रेमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019)
संकुचाता हूँ, घबराता हूँ, जो दिल में आता है वह बताता हूँ"।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने उद्बोधन में मंच पर उपस्थित सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लेख्य-मंजूषा दिन दोगुनी रात चौगुनी अपने विकास पथ पर बढ़ रही है। कार्यक्रम की प्रतियोगिता पर रौशनी डालते हुए कहा कि प्रतियोगिता का अर्थ आपसी विवाद न हो कर साहित्य सृजन का कार्य होता है। इस बार प्रतियोगिता की रूपरेखा से उत्कृष्ट रचना सामने आयी हैं।
कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ ने अपने उद्बोधन में कहा कि साहित्य की साधना सबसे बड़ी तपस्या है। निराशा से घबराना नहीं है। काव्य शिल्प पर रौशनी डालते हुए उन्होंने बताया कि छंद युक्त कविताएं अधिक खूबसूरत बनते हैं। जबकि छंदमुक्त कविता में प्रभाव रखना अत्याधिक मुश्किल होता है।
लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019) “शब्द - प्रबंधन : साहित्य - सृजन” के तहत बैंगलोर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा अनेकानेक तांका का पाठ किये।
दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। शुभारंभ के बाद लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यक स्पंदन” का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के वक़्त मंच पर डॉ. सतीशराज पुष्करणा, राश दादा राश, विभा रानी श्रीवास्तव, नसीम अख्तर, डॉ. अनिल सुलभ, कृष्णा सिंह, भगवती प्रसाद द्विवेदी, इत्यादि मौजूद रहे।
साहित्य में उच्चारण का अपना विशेष महत्व है। उच्चारण में कोई त्रुटि न हो इसके लिए लेख्य-मंजूषा के सदस्यों का 6-6 सदस्यों का 5 दल बनाया गया। दल दुष्यंत, दल नागार्जुन, दल दिनकर, दल निराला व दल प्रेमचंद नाम से बनाए गए। अस्थानीय सदस्यों के रचनाओं का पाठ स्थानीय सदस्यों ने किया।
शायर सुनील कुमार की अगुवाई में दल दुष्यंत ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रमशः दल निराला, दल प्रेमचंद , दल नागार्जुन व दल दिनकर ने द्वितीय , तृतीय, चतुर्थ और पाँचवा स्थान हासिल किया।
धन्यवाद ज्ञापन शायर सुनील कुमार ने किया। कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ, वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद डॉ. ध्रुव कुमार, आलोचक व कवयित्री प्रो. डॉ.अनिता राकेश, समाजसेवी ममता शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार नीलांशु रंजन, जे.पी. मिश्रा, जवाहर लाल प्रसाद, इत्यादि की उपस्थिति गरिमामय रही।
कहानी हो तो ऐसी हो,
लुटा दें देश पर अपनी,
जवानी हो तो ऐसी हो।
दुनिया में वही तो
है कामयाब
चापलूसी का दौर
सच की कहाँ ठौर
तुम्हारे प्यार में जानम हरिक ग़म भूल जाएंगे
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया?
आने के बाद भी
उस शैतान के चेहरे पे
कुटिल मुस्कान देखकर
मेरे तन- बदन में
आग लग जाती है
तब लिखती हुँ-
मैं कोई कवयित्री नहीँ।
अमृत संदेश सुनाना है
मानवता का है धर्म प्रेम
ये जन-जन को समझाना है
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से / लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को पुरखे मेरे
पर हम याद रखेंगे सालों साल दीवानों की तरह
तो एक नजर देख लेते हैं उधर भी
उस फुटपाथ पर मेरी नजर चली ही जाती है
जहां हालात से हारे , बेहालात वाले लोग रहते हैं।
तुम्हारे लिए है ये, अगर समझो तो
नहीं जरूरत कोई शब्दों के व्याकरण देखने की।
वेदना समझ लेना ..बस ,मेरे क्षुब्ध ह्रदय की।
सुनना शब्दों के पीछे का मौन, नीरसता प्रलय सी।
अगर समझो तो.....
कौन था ?
और आईने में अक्स किसका था ?
माँ तो इधर भी थी
माँ तो उधर भी थी
तन्हा वो भी थी
तन्हा मैं भी हूँ
सखी रे, फागुन वाला प्यार
कच्ची धूप महुआ का डेरा
अंजुरी भर-भर प्यार
पियरी सरसो का है घेरा
फागुन वाला प्यार
हम कैसे नमन करें तुम्हारा,
कैसे क़र्ज़ चुकाएंगें हम
हो कैसे सफ़ल बलिदान तुम्हारा"
दहशतगर्दी में सेना को और न मरने देंगे हम
तेरी कायरता की बलि पर देश हमारा मौन रहा
ओ जल्लादों अब जघन्यता और न करने देंगे हम
आँसुओ का ज्वार क्यू छोड़े जाते हो
पास न आओगे फिर कभी
यादों का संसार क्यो छोड़े जाते हो
समय से बगावत कर,
कब तक जीते रहोगे,
सुलगती आग भी,
ठंडी हो जाती है,
जब तक उसे ,
हवाओं की
आंच न मिले।"
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,
आह,वाह,अना,अलम और आस्ताँ के आस में
आजकल हुजूम की कारोबार खूब चली हैं
कोरी बातो से ही नहीं, हृदय से मान चाहती हूँ ।
ज़हरीली, नफ़रत से भरी
विषकन्या क्या पुनः
जीवित हो उठी है
आतंकी गलियारों में!
क्या कह रही, सुनना होगा ।
जागने का वक़्त है,
जागना और जगाना होगा।
काश! फतह ही लिखते शहादत ना लिखते
ह्रदयहीन,क्रुर, घृणित, जाहिल है ये अपना दुश्मन
भाई बनकर रहता तो सच मानो अदावत ना लिखते
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को ।
जो दीवार घर में उठाई गई है।
अपनी मर्यादा में रहकर
पुरानी कुरीतियों और जुल्मों की ,
जंजीरों को तोड़ने वाली
अपनी सहभागिता से
समाज और देश को
उन्नति प्रदान करने वाली
पुलवामा में हुआ ये कैसा हादसा!?
धरती की हूक निकली,
आसमॉ भी था रूआसॉ।
पर आँखों पर पट्टी बांध, गांधारी बन कर नहीं।
मैं अपने पुत्रों को कुरुक्षेत्र रण मैदान नहीं भेजना चाहती हूँ ।
मैं उन्हें देश की सीमाओं पर भेजना चाहती हूँ।
गर्वित होता है ये देश सारा,तिरंगा भी झुक जाता है।"
सिर्फ़ रोने से कुछ नहीं होगा
अब्र बरसे तो कोई बात बने
बीज बोने से कुछ नहीं होगा"
फल पेड़ो पर होगें तो पत्थर भी आऐंगे
जब चल पड़ी हूँ मैं सफर पर तो हौसला रखो
सहारा कही कही पे काँटे उग आऐंगे।"
मेरी गोर पे तू सदा न दे
हूँ बुझा हुआ सा च़राग मैं
मेरे पास आके हवा न दे।
तपती दुपहरी में छांव की तरह,
रूह को सुकून देती हो,
लगती हो बिलकुल मेरे गाँव की तरह ।