Wednesday, September 25, 2019

पटना और पत्रकारिता...

वह सभी बच्चें जो इस साल बारहवीं की बोर्ड एग्जाम देने वाले हैं, उन सबके लिए एक सुझाव। बारहवीं के बाद पटना से पत्रकारिता का करने का शौक गलती से मत पालना। बिहार में पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बड़ा स्कोप नहीं है। कॉलेज के शुरुआती दिनों में पत्रकारिता की पढ़ाई करना वाकई अच्छा लगता है। कभी किसी इवेंट में जाना, नाटक देखना, फिल्मे देखना उसपर समीक्षा लिखना। बेशक, ये हमारे कोर्स का हिस्सा होता है। देखने में कितना ग्लैमर लगता है। दूसरे क्षेत्र के लोगों को भी यही गलतफहमी होती है कि क्या चमक धमक है मीडिया क्षेत्र में। 
पर सच्चाई,
कॉलेज से निकलने के बाद आप या तो आगे की पढ़ाई करेंगे या फिर नौकरी की तलाश। जो आगे पढ़ना चाहते हैं उनके लिए सुझाव अगर मास्टर्स की पढ़ाई पत्रकारिता से ही करनी है तो बिना सोचे बिहार छोड़ो। यहाँ अपने आप को सिर्फ धोखा दोगे। 
अब आतें है उनपर जो स्नातक करने के बाद नौकरी की तलाश में निकलते हैं। तो ये बात किसी से छिपी नहीं है यहाँ किसी भी कॉलेज में पत्रकारिता विभाग में कैंपस सिलेक्शन नाम की कोई चीज़ नहीं होती है। 
इसके बाद निकलते हैं बच्चें इंटर्नशिप करने के लिए। एक - दो साल खींच - खींच के 4 - 5 जगह से इंटर्नशिप कर ही लेते हैं। लेकिन इंटर्नशिप में उन्हें कोई भी संस्थान पैसा नहीं देती है। 
पत्रकारिता के बदलते दौर में पटना में कुकुरमुत्तों की तरह वेब पोर्टल, यूट्यूब न्यूज़ चैनल, फेसबुक पेज के माध्यम से लोगों तक खबरें भेजी जा रही हैं। दावा किया जाता है अखबारों से पहले हम। मोहल्ले तक की खबरे अब छिपती नहीं है। पर ये खबरें लाकर देगा कौन ? इसके लिए 1000-2000 रुपये की अस्थायी नौकरी पर उन्हीं बच्चों को रखा जाता है जो पत्रकारिता से स्नातक किये रहते हैं। संस्थाओं द्वारा उन्हें विश्वास दिलाया जाता है वह रिपोर्टर हैं। उनका आई - कार्ड पर सिटी रिपोर्टर का तमगा लगा रहता है। बाइक के आगे अंग्रेजी के बड़े - बड़े अक्षरों में प्रेस लिखवाया जाता है। यह वह ब्रह्म मोह पास है जिसके अंदर जाने पर कोई नहीं निकल पाता है। पत्रकार बनने की जगह सिर्फ संवाद - सूत्र बन कर रह जाते हैं। कुछ महीने काम कर लेने के बाद जब वह अपनी तनख्वाह बढ़ाने की बात करता है तो उसके सामने मीडिया हाउसेस द्वारा फण्ड का रोना रोते हुए अपना असली चेहरा दिखाते हैं। साथ में यह भी बताया जाता है कि तुममें सिर्फ लिखने की क्षमता है टेक्निकल नहीं होने के कारण हम तुम्हें कितना पैसा दे सकते हैं !
कोई चारा नहीं देखते हुए वह नया पत्रकार मन मसोस कर के दुबारा काम पर लग जाता है। उस 2000 के लिए उसे कभी भी किसी भी जगह किसी भी वक़्त पर भेज दिया जाता है। घिरनी की तरह नचाया जाता है। इस घिरनी पत्रकारिता के चक्कर में पत्रकारिता के अन्य आयाम जैसे फ़िल्म, संदर्भ पत्रकारिता, एडिटिंग, किताबों का अध्ययन ये सब कहीं पीछे छूट जाता है। वैसे भी इन तमाम विषयों पर भी पटना में कोई स्कोप नहीं है। वह नया पत्रकार सिर्फ और सिर्फ संवाद - सूत्र बन कर रह जाता है। 4 - 5 साल काम करने के बाद तनख्वाह पाँच हज़ार तक जाती है। अंत तक आप टिक ही नहीं सकते हैं
सिर्फ माइक पकड़ना और कैमरा के सामने के लालच में वह नया पत्रकार किसी दूसरे क्षेत्र में जाने का सोचना भी छोड़ देता हैं। इस दौर में ऐसे पत्रकार बहुत जगह हाथ - पैर मारते हैं कहीं कुछ अच्छे जगह हो जाये। पर अफसोस पटना की पत्रकारिता आपका हर जगह शोषण करती है।
पटना में रह कर पत्रकारिता करने वाले लोगों को बिहार के प्रिंट मीडिया का हाल अच्छी तरह से पता होगा। प्रिंट मीडिया में नौकरी पाना लौहे के चने चबाने जितना कठिन है। उन्हें आज के समय में एक व्यक्ति के अंदर छः व्यक्तियों के गुण वाला पत्रकार की खोज रहती है। उस नए पत्रकार को नौकरी पर रखने से पहले उसका खुद का बनाया हुआ सूत्रों का जाल हो। दूसरा उसे खबरें लिखनी आनी चाहिए। तीसरा संपादक जब जो कह दे उसे वह करने के लिए तैयार रहना चाहिए। चौथा पेज डिज़ाइन करना आना चाहिए। पाँचवा उप संपादक का कार्य आना चाहिए। और,  अंत में छठा आपके पास पत्रकारिता की डिग्री हो। इन मानकों पर कोई गलती से खड़ा नज़र आता है तो उसकी शुरुआती तनख्वाह ज्यादा से ज्यादा 8000 तक होती है। अधिकतर लोग पेज डिज़ाइन के नाम पर छांट दिए जाते हैं। उन्हें तब होश आता है कि कॉलेजों में तो पेज डिज़ाइन के नाम पर तो कभी कुछ बताया ही नहीं गया। 
प्रिंट मीडिया या किसी भी मीडिया में लोग सच्चाई लिखने की मकसद से आते हैं। उन्हें कॉलेज के दिनों से ही ये वहम निकाल देने की सलाह यहाँ दी जाती है। बात सही भी है, प्रिंट मीडिया सरकार की चाटूकारिता में लगी हुई है तो वेब पोर्टल किसी पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष की। 
कुछ हिम्मती वैसे भी होते हैं जो कुछ लोगों का दल बना कर पत्रकारिता में स्टार्टअप नाम की चीज़ शुरू करते हैं। आईडिया नए होने के कारण उन्हें शुरुआती सफ़लता काफी मिलती है। पर बाद में वही समस्या सामने आती है फण्ड। फण्ड नाम का जो राक्षक मुँह खोले खड़ा पत्रकारिता के क्षेत्र में इसने कभी भी पत्रकारिता को सही राह पर चलने नहीं दिया है। जिस किसी ने फण्ड जारी की खबरें अपने हिसाब से चलवाई। 
इन सबके इतर कुछ ऐसे पत्रकार भी है जो खुद का चैनल बनाने हुए हैं। उस चैनल में वही सबकुछ हैं। कहने का मतलब वन मैन आर्मी। अकेला बन्दा माइक कैमरा लेकर निकल पड़ता है रिपोर्टिंग करने। खुद एडिट भी कर लेता है। यूट्यूब और फेसबुक के माध्यम से उसे चला भी देता है। ऐसे पत्रकारों से एक सवाल है - भाई कमाते कितना हो ?
पटना में रहते हुए पत्रकारिता करनी है और पैसे भी अधिक कमाने है, तो इसका सीधा सा एक रास्ता है। पत्रकार नहीं दलाल बनो।
ऐसे दलाल बनों की बिस्कोमॉन भवन का ड्राइविंग लाइसेंस बनाने वाला दलाल भी शर्मा जाएं। बिहार में मैंने ऐसे कई वरिष्ठ पत्रकारों को नेताओं, बिल्डरों के चरणों मे गिरते देखा है। पत्रकारिता में दलाली की उत्कृष्ट उदाहरण क्या हो सकता है। चुनाव के समय बाहुबली नेता के घर में जाकर कैमरे के सामने पूछना - क्या जी ये नेता जी कुत्ता है ? नास्ता में क्या खाता है ये कुत्ता ?
इस पंक्ति से पत्रकारिता के नए विद्यार्थी बहुत कुछ सिख सकते हैं। खबरों की एंगल कैसे बनाया जाता है। वह कुत्ता अगर आपके इलाके का होता तो और भुखमरी से मर जाता तो कोई बात नहीं। लेकिन नेता जी का कुत्ता है तो उसे तो कैमरे पा आना ही था। 
।।
खैर, मुद्दा ये है कि इस क्षेत्र में रहना है तो बिहार छोड़िए। बाहर निकलिए, इसी क्षेत्र में अधिक रास्ते आपको मिलेंगे। जिसमें आपको पैसे भी अच्छे प्राप्त होंगे। लेकिन पटना में रहते हुए इस लाइन में रहना तो जीवन भर काम करने के बाद भी आप 10 हज़ार से 15 हज़ार तक की नौकरी कर पाएंगे। अखबारों में यही सैलरी 25 हज़ार तक जा सकती है।दलाली करने के बाद बेशक लाख रुपये यहाँ कमा सकते हैं।
जब आप अपने बाहर के दोस्तों को देखेंगे तो जो आराम की नौकरी में 50 हज़ार तक कमा रहा है और आप सिर्फ 5 हज़ार तो उस समय आपके पास सिर्फ हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं होगा।
इस लाइन को छोड़े या फिर इस शहर को छोड़े।


Sunday, May 12, 2019

मातृ दिवस : प्रतिपल नमन (लेख्य - मंजूषा)

मातृ दिवस : प्रतिपल नमन



“घर के अंदर ही माँ पूरी पाठशाला है”। उक्त पंक्तियां आदरणीया  कृष्णा सिंह जी ने साहित्यिक संस्था लेख्य मंजूषा, पटना के त्रैमासिक कार्यक्रम “मातृ दिवस: हर पल नमन" के अवसर में कही। अपने व्यक्तव मे  कृष्णा सिंह जी ने मंच से कहा कि माँ हमारे जीवन का अस्तित्व है। माँ के लिए तो पूरा जीवन कम पड़ जाता है। हमारा हर दिन माँ के लिए होता है।
मुख्य अतिथि के तौर पर वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने अपने लेख्य मंजूषा की पत्रिका “साहित्यक स्पंदन" में प्रकाशित स्वर्गीय प्रेमचंद जी की रचना ईदगाह पर रोशनी डालते हुए कहा कि अगर आज हर इंसान खुद को हमीद बना ले तो वृद्धाश्रम की जरूरत नहीं पड़ेगी।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने इस मौके पर कहा कि आज की सभी रचना माँ को समर्पित थी। आज के दिवस किसी की रचना को जज नहीं किया जा सकता है। जो बातें आज रचना में सुनने को मिली है उसे हमें अपने जीवन मे आत्मसात करना चाहिए।
लेख्य- मंजूषा की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा कि मैं एक माँ हूँ, स्त्री जब माँ बनती है तो जीवन पर माँ ही बन कर रह जाती है। संस्था के सभी सदस्य मुझे माँ कह कर ही सम्बोधन करते हैं।
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आज के कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए पहले दीप प्रज्वलित करने के बाद, साहित्यिक स्पंदन पत्रिका का लोकार्पण किया गया।
मौके पर महशूर गजलकार समीर परिमल ने चुनावी दौर पर व्यंग्य करते हुए अपनी कविता का पाठ करते हुए कहा कि एक वोट के दम पर सरकार बदलता हूँ।
कार्यक्रम में निलंशु रंजन, आयाम संस्था के अध्यक्ष गणेश जी भागी, समाजसेवी रेशमा प्रसाद जी उपस्थित थी।
मंच संचालन ईशानी सरकार ने किया। धन्यवाद ज्ञापन रवि श्रीवास्तव ने किया।

आज के कार्यक्रम में जो कविताएं पढ़ी गयी। उनकी पंक्तियां:-

01. *सीमा रानी*- बरसों पहले छोड़ गयीं वो
ढेरों सपने तोड़ गयीं वो
मुख अपना मोड़ गयीं वो
तन्हा मुझको छोड़ गयीं वो
 
02. *प्रियंका श्रीवास्तव "शुभ्र"*- "माँ मात्र एक संबोधन नहीं
ये शब्द करे तन मन स्पंदन
हृदय का है प्यार उद्गार
जिसका न होता कोई आभार।"

03. *राजेन्द्र पुरोहित* – तुम सोचते हो
वो सिर्फ नौ महीने सहती है
प्रसव पीड़ा
सिर्फ नौ महीने...
नहीं
कदापि नहीं...

04. - *रब्बान अली*– दुनिया के सारे रिश्तो से अफजल है मेरी माँ
ये कायनात तेरे दम से है मेरी
प्यारी माँ

05. *पम्मी सिंह 'तृप्ति'* – बाकी सब जहाँ के रवायतों में सहेज रखा ..
पर.. जब भी घिरती हूँ दुविधाओं में
माँ..सच तेरी, बहुत कमी खलती है,

06. *श्रुत कीर्ति अग्रवाल* - जब-जब चोट लगी मेरे तन को, याद तुम्हीं क्यों आईं माँ?
हर संकट हर दुख में मैंने,
तेरी ही रट क्यों लगाई माँ?

07. *शशि शर्मा 'खुशी'*- अपने दुख का,
साया भी नहीं पड़ने देती
मगर मेरे हर दुख को
समेट लेती अपने आँचल में

08. *श्वेता सिन्हा* - गर्व सृजन का पाया
बीज प्रेम अंकुराया
कर अस्तित्व अनुभूति
सुरभित मन मुस्काया

09. *राजकांता राज* – मेरी प्यारी माँ तुझे सलाम तूझे सलाम
मुझे खाना खिलाया छोड़ सब काम
मेरी न्यारी माँ तूझे सलाम तूझे सलाम
मुझे ड्रेस पहनाया बिना देखे दाम

10. *ज्योति मिश्रा* – है एक भाव ममता का बस;  जग समझे इसकी भाषा है
वह शब्दकोश भी मिला नहीं ,  जिसमें मां की परिभाषा है  ।।

11. *सुबोध कुमार सिन्हा* -गढ़ा है अम्मा तुमने मुझे
नौ माह तक अपने गर्भ में
जैसे गढ़ी होगी
उत्कृष्ट शिल्पकारियाँ
बौद्ध भिक्षुओं ने कभी
अजंता-एलोरा की गुफाओं में

12. *शाईसता अंजूम* - माँ की यादे
माँ तेरे आँचल की छाँव न रही
कौन मेरी खौरियत की दुआ करेगा

13. *कृष्णा सिंह* - माँ के प्यार में गंगा की धार है
माँ तो सौम्य व शुचि संस्कार है
सुर, नर, मुनि की स्तुति का सार है
माँ!  ईश्वर का दिया सर्वोत्तम उपहार है।

14. *अणिमा श्रीवास्तव* - बस इसी में सिमटी है, तेरी इबादत।
क्या तुझसे बढकर भी हो सकती है कोई नेमत
खुदा ने भी जिसे दुआओं में माँगा
तू वो मन्नत है।
यू हीं नहीं कहते तेरे पैंरो तले जन्नत है।

15. *सिन्धु कुमारी* -देकर वह अनमोल धन , लेती एक न भेंट ।
माँ स्नेहिल-सी चासनी , रग-रग देती फेंट।।

16. *मधुरेश नारायण* - ओ ! माँ ! मुझे क्यूँ इतना तू सताती है?
क्यूँ मुझसे इतनी दूर चली जाती है ?
जब तक रही तू,तेरा क़द्र ना किया
जाने के बाद तेरी याद बहुत आती है !

17. *डॉ. पूनम देवा* -कैसे  भूल लूँ  माँ  तुम्हारा वो प्यार- दुलार,
तुम्ही ने तो दिया था
हम सब को संस्कार,
तुम ही थी,हमारे घर की
फूल   " सदाबहार" ।

18. *मीरा प्रकाश*  - यह उनका घर है
 उन्हीं का घर है ,
लेकिन फिर भी कभी मां को ये घर
मायका सा लगने दो।

19. *कमला अग्रवाल* -सृजनता की पहली कड़ी है माँ ,
नौ महीने कोख में रख ,
असहय वेदना को सह ,
हमें धरती पे लाती है माँ ॥

20. *प्रेमलता सिंह* (2) –माँ !आज भी  मुझे  वो दिन याद है, जब तू रोया  करती थी ।
 तकलीफ  मुझे भी होती थी
 तेरे रोने की  आवाज  मैंने  भी सूनी थी।

21. *मीनाक्षी सिंह* -सरस शीतल तरल तरंग / माँ के आँचल का हर रंग।
जितना सुकून यहां मिलता है
सारे जहां मे कहाँ मिलता हैं।

22. *अमृता सिन्हा* -काश तेरे आँचल तले
तमाम उम्र गुज़र जाती
थाम कर ऊँगली, ओ माँ
तू बचपन मेरा, फिर ले आती

23. *सुधांशु कुमार* –माँ की ममता
माँ का आँचल
प्यार स्नेह का सागर ।।
माँ का आशीर्वाद
भगवान का प्रसाद ।।
माँ की मीठी बोली
कानों की   लोरी ।। 
माँ में ही संसार
माँ में ही जीवनसार।।
   
24. *सुनील कुमार* –माँ का आँचल धरती अंबर लगता है
रूप सलोना स्नेह सरोवर लगता है

प्रेम शजर उसने ही दिल में है बोया
दिल उसका परियों सा सुंदर लगता है

25. *संजय कुमार 'संज'* -पिता की सत्ता और
शासन की संप्रभुता में
राज तुम्हारा यूँ भी रहा
कभी हँसी तू महफ़िल में
कभी अकेले आॅ॑सू भी बहा

Tuesday, May 7, 2019

हैप्पी फ्रेंडशिप डे

07 मई 2011
हाँ आज ही का तो दिन था। हाँ आज की तो दिन था। जब हम पहली बार मिले थे। मई की चिलचिलाती गर्मी थी, कंप्यूटर क्लास था, शाम का वक़्त वक़्त था, नया बैच था। टैली सीखने गए थे। घर में खाली ही बैठे थे उन दिनों। वैसे भी इंटर में आर्ट्स लेने वालों को घर वाले “घर की मुर्गी के बराबर” ही समझते हैं।
हाँ तो वह आयी,
कितनी शालीनता थी उसके चेहरे पर। मुझे याद है पहले क्लास में 8 लड़कियां और 3 लड़के थे। चलो लड़कियों की संख्या यहाँ तो अधिक थी। उसकी बड़ी बहन भी थी बैच में। आर्ट्स स्ट्रीम होने की वजह से कॉमर्स स्ट्रीम की पढ़ाई मेरे समझ से बाहर हो रही थी। वह भी आर्ट्स स्ट्रीम की ही स्टूडेंट थी।
घर में फालतू बैठे रहने के कारण मैं क्लास आधे घण्टे पहले चला आया करता था। घर में उपन्यास छिपा के पढ़ना पड़ता था। एक कोचिंग ही था जहाँ बिना किसी डर के उपन्यास पढ़ पाता था। वह रोज़ मुझे उपन्यास पढ़ते हुए देखती थी। उन दिनों भारतीय लेखकों की अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने का चस्का लगा हुआ था। उन दिनों, अंग्रेजी उपन्यास सामने वाले पर एक अलग छाप छोड़ता था।
एक दिन उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने मुझसे पूछ डाला - आप हमेशा उपन्यास पढ़ते हैं। मैंने हाँ में जवाब दिया। तब उन्होंने बताया कि उन्हें भी उपन्यास पढ़ने का मन करता है। मेरे कुछ बोलने से पहले उनकी बड़ी बहन ने मुझसे कहा - आप हमें भी दे सकते हैं उपन्यास पढ़ने के लिए।
।।
उस दिन वह उपन्यास मेरे बैग में वापस न जाकर, उनके लेडीज पर्स में छुप कर चला गया। 5 दिन हो गए पर उपन्यास वापस आयी नहीं। मुझे बेचैनी हो रही थी, पर मैंने कुछ कहा नहीं। अगले दिन उपन्यास मेरे हाथ में था। उनकी बड़ी बहन ने बताया - क्या बताऊँ अभिलाष जी एक पेज पढ़ने के बाद ही मेरा सर दर्द करने लगा। ये तो छोटी ने इसको रात - रात भर जग के पढ़ी है। मोबाइल की रोशनी जला कर।
मैं छोटी वाली की तरफ देख कर मुस्कुरा दिया। उनके चेहरे पर भी मुस्कान थी। उसके बाद उपन्यास पर चर्चा होने लगी।।
अब ये रोज़ का सिलसिला हो गया। उपन्यासों के जरिये हमारी दोस्ती आगे बढ़ रही थी। उपन्यास इस दोस्ती में सूत्रधार बन रहे थे।
हम दोनों के बीच अच्छी दोस्ती हो चुकी थी। वह मेरे बारे में क्या सोचती ये तो मुझे आज तक पता नहीं चला। पर मेरे दिल के किसी कोने में एक मीठी घन्टी बजी थी।
एक दिन उन्होंने बताया कि वह कविताएं लिखती हैं। तभी पीछे से उनकी बड़ी बहन ने कहा - अभिलाष जी दो डायरी लिख के रखी है।
मेरे मुँह से केवल एक शब्द निकला - अरे वाह! क्या बात है।
मैंने उनसे कहा - क्या आप अपनी कविता मुझे नहीं देंगी पढ़ने?
उनकी बड़ी बहन ने कहा - किसी को नहीं दी है पढ़ने। सिर्फ मैंने पढ़ी है।
यह सुनकर मैंने कहा - अगर कोई बात है तो कोई दवाब नहीं है डायरी देने की।।
अगले दिन वह डायरी मेरे बैग में थी। उनकी बड़ी बहन ने हँसते हुए कहा - अरे वाह अभिलाष जी! आप तो नसीब वाले निकले। आप मेरे बाद दूसरे इंसान है जो इस डायरी को पढ़ने वाले हैं। मुझे तो उतना समझ नहीं आया। लेकिन अच्छा लिखती है। पढ़ के बताइएगा।
वह डायरी तकरीबन मैंने 1 महीने अपने पास रखा था। मैंने सारी कविता पढ़ डाली थी।
मेरे पास कोई शब्द नहीं थे। केवल यही दिमाग में था कि कितना टैलेंट है इस लड़की है। अगर अपने दिल पर हाथ रखूं तो यही कविताएं मुझे लेख़क बनने की प्रेरणास्रोत थी और है।
मैंने उन्हें डायरी वापस कर दिया। केवल एक शब्द कहा - लिखना छोड़ना मत!
।।
4 महीने का कोर्स था। जो अब ख़त्म होने वाला था। क्लास खत्म होने से एक हफ्ते पहले ही मैं क्लास छोड़ने वाला था। ये बात पूरे क्लास को पता थी। जिस दिन मेरा अंतिम क्लास था, वह एक सादा  कॉपी मेरे पास लेकर आयी और कहा - अभिलाष आप इसपर अपना ऑटोग्राफ दीजिये।
मेरा मुँह खुला रह गया था। मैंने उनसे कहा - मैंने जीवन में ऐसा कोई बड़ा कार्य नहीं किया है। जो आप मेरे ऑटोग्राफ लें।
उन्होंने सिर्फ इतना कहा - आप बहुत अच्छे इंसान है। आप बहुत आगे जाएंगे।
मैंने अपना ऑटोग्राफ दे दिया। जीवन का पहला ऑटोग्राफ दिया था मैंने।
ऑटोग्राफ लेने के बाद उन्होंने कहा था - इसे जीवनभर अपने पास रखूंगी।।
पीछे उसके बड़ी बहन का हो - हो सुनाई दे रहा था। जाते - जाते उन्होंने अपना नंबर मुझे दिया। उन दिनों लड़कियों के नंबर मिलना पारस पत्थर मिलने जितना बराबर था।
।।
मैं जा चुका था।
अब हमारी दोस्ती फ़ोन पर नया रूप ले रही थी। उनके बर्थडे पर सबसे पहले मैसेज भेजना और मेरे बर्थडे पर उनका सबसे पहले मैसेज आना।
इसके बाद मैं पढ़ाई के लिए बंगाल चला गया। लेकिन संपर्क कभी टूटा नहीं। दोस्त थे और आगे भी दोस्त रहे।
अवसाद के दिनों में भी वह हिम्मत देती रहीं। पटना वापस आने के बाद 6-7 महीनों में एक - आध बार पार्क में मिलने चला जाता था। जिस बेंच पर हम बैठते, उसके एक सिरे पर हम दूसरे सिरे पर वह। और बोलने के लिए कुछ भी नहीं।
अवसादों ने मुझे लेख़क बना दिया। और इसी दौर में वह साहित्य से दूर हुई। या यूँ कहें , हम दोनों एक दूसरे से दूर हुए। उन्हें अपनी भविष्य ठीक करनी थी। और मैं खुद को साहित्य के सागर में झोंकने को तैयार था।
हमारी दोस्ती सिर्फ एक फॉर्मेलिटी बन कर रह चुकी थी। उनके मन में क्या था , ये कभी जान सका। खुद हिम्मत कर के कभी बोल या कुछ पूछ नहीं सका।
आज हमारी फ्रेंडशिप डे है। सिर्फ एक व्हाट्सएप मैसेज...☺️

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अंत में आप सब ये जरूर सोच रहे होंगे मैंने कुछ बोला या पूछा क्यों नहीं।
तो इसका जवाब ये है-
“ये बिहार है,
और हमारी जातियाँ अलग थी”।।

Monday, March 11, 2019

लेख्य-मंजूषा त्रेमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019)

“मौन ही मेरी भाषा है, दूर क्षितिज तक जाती है।
संकुचाता हूँ, घबराता हूँ, जो दिल में आता है वह बताता हूँ"।
 
उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश ने लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम में कहीं। अपने उद्बोधन में उन्होंने बताया कि कविता मंच से निकले और श्रोता के दिल तक पहुँचे वही कविता है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आदरणीय डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने अपने उद्बोधन में मंच पर उपस्थित सभी का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि लेख्य-मंजूषा दिन दोगुनी रात चौगुनी अपने विकास पथ पर बढ़ रही है। कार्यक्रम की प्रतियोगिता पर रौशनी डालते हुए कहा कि प्रतियोगिता का अर्थ आपसी विवाद न हो कर साहित्य सृजन का कार्य होता है। इस बार प्रतियोगिता की रूपरेखा से उत्कृष्ट रचना सामने आयी हैं।
कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ ने अपने उद्बोधन में कहा कि साहित्य की साधना सबसे बड़ी तपस्या है। निराशा से घबराना नहीं है। काव्य शिल्प पर रौशनी डालते हुए उन्होंने बताया कि छंद युक्त कविताएं अधिक खूबसूरत बनते हैं। जबकि छंदमुक्त कविता में प्रभाव रखना अत्याधिक मुश्किल होता है।
लेख्य-मंजूषा के त्रैमासिक कार्यक्रम (मार्च 2019) “शब्द - प्रबंधन : साहित्य - सृजन” के तहत बैंगलोर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय राश दादा राश मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार व लघुकथा के पितामह डॉ. सतीशराज पुष्करणा अनेकानेक तांका का पाठ किये।
दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। शुभारंभ के बाद लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यक स्पंदन” का लोकार्पण किया गया। लोकार्पण के वक़्त मंच पर डॉ. सतीशराज पुष्करणा, राश दादा राश, विभा रानी श्रीवास्तव, नसीम अख्तर, डॉ. अनिल सुलभ, कृष्णा सिंह, भगवती प्रसाद द्विवेदी, इत्यादि मौजूद रहे।
“शब्द-प्रबंधन:साहित्य-सृजन”
साहित्य में उच्चारण का अपना विशेष महत्व है। उच्चारण में कोई त्रुटि न हो इसके लिए लेख्य-मंजूषा के सदस्यों का 6-6 सदस्यों का 5 दल बनाया गया। दल दुष्यंत, दल नागार्जुन, दल दिनकर, दल निराला व दल प्रेमचंद नाम से बनाए गए। अस्थानीय सदस्यों के रचनाओं का पाठ स्थानीय सदस्यों ने किया।
शायर सुनील कुमार की अगुवाई में दल दुष्यंत ने प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रमशः दल निराला, दल प्रेमचंद , दल नागार्जुन व दल दिनकर ने द्वितीय , तृतीय, चतुर्थ और पाँचवा स्थान हासिल किया।
धन्यवाद ज्ञापन शायर सुनील कुमार ने किया। कार्यक्रम में बिहार साहित्य सम्मेलन के अध्य्क्ष डॉ. अनिल सुलभ, वरिष्ठ पत्रकार व शिक्षाविद डॉ. ध्रुव कुमार, आलोचक व कवयित्री प्रो. डॉ.अनिता राकेश, समाजसेवी ममता शर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार नीलांशु रंजन, जे.पी. मिश्रा, जवाहर लाल प्रसाद, इत्यादि की उपस्थिति गरिमामय रही।
*–कृष्णा सिंह-* जमाना याद रखे जो,
कहानी हो तो ऐसी हो,
लुटा दें देश पर अपनी,
जवानी हो तो ऐसी हो।
*–डॉ. सतीशराज पुष्करणा–* जो बेशर्म है
दुनिया में वही तो
है कामयाब
चापलूसी का दौर
सच की कहाँ ठौर
*-सुनील कुमार-* ग़ज़ल हो तुम मेरी जाना तुम्हें ही गुनगुनायेंगे
तुम्हारे प्यार में जानम हरिक ग़म भूल जाएंगे
*-शशि शर्मा खुशी-* साँसों की डोर जब,
छोडने लगती है तन का साथ
याद आने लगता है बीता कल
मन लगाने लगता है हिसाब
क्या खोया क्या पाया?
*–प्रेमलता सिंह–* कानून के शिकंजे में
आने के बाद भी
उस शैतान के चेहरे पे
कुटिल मुस्कान देखकर
मेरे तन- बदन में
आग लग जाती है
तब लिखती हुँ-
मैं कोई कवयित्री नहीँ।
अंकिता कुलश्रेष्ठ– चेतना हीन मानव विषाक्त
अमृत संदेश सुनाना है
मानवता का है धर्म प्रेम
ये जन-जन को समझाना है
सुबोध कुमार सिन्हा– धान के बिचड़े सरीखे
मालूम नहीं सदियों पहले
कब और कहाँ से / लाँघ आए थे गाँव की पगडंडियों को पुरखे मेरे
शुशांत सिंह– एक सफ़र हुआ महबूब संग अनजानों की तरह
पर हम याद रखेंगे सालों साल दीवानों की तरह
मीरा प्रकाश– सड़क से गुजरते हैं हम
तो एक नजर देख लेते हैं उधर भी
उस फुटपाथ पर मेरी नजर चली ही जाती है
जहां हालात से हारे , बेहालात वाले लोग रहते हैं।
वीणाश्री हेम्ब्रम– कुछ शब्द है कुछ मौन है ,अगर समझो तो
तुम्हारे लिए है ये, अगर समझो तो
नहीं जरूरत कोई शब्दों के व्याकरण देखने की।
वेदना समझ लेना ..बस ,मेरे क्षुब्ध ह्रदय की।
सुनना शब्दों के पीछे का मौन, नीरसता प्रलय सी।
अगर समझो तो.....
-साधना ठाकुर– पता नहीं आईने के सामने
कौन था ?
और आईने में अक्स किसका था ?
माँ तो इधर भी थी
माँ तो उधर भी थी
तन्हा वो भी थी
तन्हा मैं भी हूँ
संजय कुमार 'संज'– फागुन वाला प्यार
सखी रे, फागुन वाला प्यार
कच्ची धूप महुआ का डेरा
अंजुरी भर-भर प्यार
पियरी सरसो का है घेरा
फागुन वाला प्यार
प्रभास सिंह– कभी देखा है! माँ गंगे के चरणों में पड़ी हुई, आस्था से उत्पर्ण व्यर्थ वस्तुओं को..
–अमृता सिन्हा– "ओ भारत माँ के अमर शहीदों,
हम कैसे नमन करें तुम्हारा,
कैसे क़र्ज़ चुकाएंगें हम
हो कैसे सफ़ल बलिदान तुम्हारा"
सरोज तिवारी– पाक तेरा नापाक इरादा और न बढ़ने देंगे हम
दहशतगर्दी में सेना को और न मरने देंगे हम
तेरी कायरता की बलि पर देश हमारा मौन रहा
ओ जल्लादों अब जघन्यता और न करने देंगे हम
डॉ. रबबान अली– दामन बचा के चले गए तुम
आँसुओ का ज्वार क्यू छोड़े जाते हो
पास न आओगे फिर कभी
यादों का संसार क्यो छोड़े जाते हो
–सुधांशु कुमार–
समय से बगावत कर,
कब तक जीते रहोगे,
सुलगती आग भी,
ठंडी हो जाती है,
जब तक उसे ,
हवाओं की
आंच न मिले।"
पम्मी सिंह'तृप्ति'–"भीड़ तंत्र पर बात चली हैं,एक छत के खातिर
बेरोजगार भटके युवकों की राह बदली हैं,
आह,वाह,अना,अलम और आस्ताँ के आस में
आजकल हुजूम की कारोबार खूब चली हैं
अनिता मिश्रा– देखो मैं नारी हूँ, नारी का सम्मान चाहती हूँ।
कोरी बातो से ही नहीं, हृदय से मान चाहती हूँ ।
कल्पना भट्ट– यह कैसी हवा
ज़हरीली, नफ़रत से भरी
विषकन्या क्या पुनः
जीवित हो उठी है
आतंकी गलियारों में!
–सीमा रानी– मातृभूमि की चुनौतियाँ,
क्या कह रही, सुनना होगा ।
जागने का वक़्त है,
जागना और जगाना होगा।
–मीनू झा– हर बार लहू से ही मुल्क ए इबारत ना लिखते
काश! फतह ही लिखते शहादत ना लिखते
ह्रदयहीन,क्रुर, घृणित, जाहिल है ये अपना दुश्मन
भाई बनकर रहता तो सच मानो अदावत ना लिखते
मो. नसीम अख्तर– इधर शम्मे उलफत जलाई गई है।
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को ।
जो दीवार घर में उठाई गई है।
–कमला अग्रवाल– नई सुबह होने तो दो,रिश्तों कीदूरी ना बढ़ओ ,कुछ तुम मान जाओ ,कुछ वे मान जायें ,ताप न रखो मन में,मनकी व्यथा को पिघलने तो दो
–मिनाक्षी सिंह– मैं आज की नारी
अपनी मर्यादा में रहकर
पुरानी कुरीतियों और जुल्मों की ,
जंजीरों को तोड़ने वाली
अपनी सहभागिता से
समाज और देश को
उन्नति प्रदान करने वाली
–अणिमा श्रीवास्तव–
पुलवामा में हुआ ये कैसा हादसा!?
धरती की हूक निकली,
आसमॉ भी था रूआसॉ।
एकता कुमारी– मैं सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ।
पर आँखों पर पट्टी बांध, गांधारी बन कर नहीं।
मैं अपने पुत्रों को कुरुक्षेत्र रण मैदान नहीं भेजना चाहती हूँ ।
मैं उन्हें देश की सीमाओं पर भेजना चाहती हूँ।
–कुमारी स्मृति–"जब रक्त गिरता है वीर का,सरहद पर गुल मुस्काता है,
गर्वित होता है ये देश सारा,तिरंगा भी झुक जाता है।"
राजेन्द्र पुरोहित– "दर्द ढोने से कुछ नहीं होगा
सिर्फ़ रोने से कुछ नहीं होगा
अब्र बरसे तो कोई बात बने
बीज बोने से कुछ नहीं होगा"
–शाईस्ता अंजुम–"रिश्ते जताने लोग मेरे घर भी आऐंगे
फल पेड़ो पर होगें तो पत्थर भी आऐंगे
जब चल पड़ी हूँ मैं सफर पर तो हौसला रखो
सहारा कही कही पे काँटे उग आऐंगे।"
ज्योति मिश्रा– मैं तो ख़ाके ग़म में ही दफ़न हूँ
मेरी गोर पे तू सदा न दे
हूँ बुझा हुआ सा च़राग मैं
मेरे पास आके हवा न दे।
संजय कुमार सिंह– गहरी नदी में नाव की तरह,
तपती दुपहरी में छांव की तरह,
रूह को सुकून देती हो,
लगती हो बिलकुल मेरे गाँव की तरह ।


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अभिलाष दत्ता