Wednesday, September 25, 2019

पटना और पत्रकारिता...

वह सभी बच्चें जो इस साल बारहवीं की बोर्ड एग्जाम देने वाले हैं, उन सबके लिए एक सुझाव। बारहवीं के बाद पटना से पत्रकारिता का करने का शौक गलती से मत पालना। बिहार में पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बड़ा स्कोप नहीं है। कॉलेज के शुरुआती दिनों में पत्रकारिता की पढ़ाई करना वाकई अच्छा लगता है। कभी किसी इवेंट में जाना, नाटक देखना, फिल्मे देखना उसपर समीक्षा लिखना। बेशक, ये हमारे कोर्स का हिस्सा होता है। देखने में कितना ग्लैमर लगता है। दूसरे क्षेत्र के लोगों को भी यही गलतफहमी होती है कि क्या चमक धमक है मीडिया क्षेत्र में। 
पर सच्चाई,
कॉलेज से निकलने के बाद आप या तो आगे की पढ़ाई करेंगे या फिर नौकरी की तलाश। जो आगे पढ़ना चाहते हैं उनके लिए सुझाव अगर मास्टर्स की पढ़ाई पत्रकारिता से ही करनी है तो बिना सोचे बिहार छोड़ो। यहाँ अपने आप को सिर्फ धोखा दोगे। 
अब आतें है उनपर जो स्नातक करने के बाद नौकरी की तलाश में निकलते हैं। तो ये बात किसी से छिपी नहीं है यहाँ किसी भी कॉलेज में पत्रकारिता विभाग में कैंपस सिलेक्शन नाम की कोई चीज़ नहीं होती है। 
इसके बाद निकलते हैं बच्चें इंटर्नशिप करने के लिए। एक - दो साल खींच - खींच के 4 - 5 जगह से इंटर्नशिप कर ही लेते हैं। लेकिन इंटर्नशिप में उन्हें कोई भी संस्थान पैसा नहीं देती है। 
पत्रकारिता के बदलते दौर में पटना में कुकुरमुत्तों की तरह वेब पोर्टल, यूट्यूब न्यूज़ चैनल, फेसबुक पेज के माध्यम से लोगों तक खबरें भेजी जा रही हैं। दावा किया जाता है अखबारों से पहले हम। मोहल्ले तक की खबरे अब छिपती नहीं है। पर ये खबरें लाकर देगा कौन ? इसके लिए 1000-2000 रुपये की अस्थायी नौकरी पर उन्हीं बच्चों को रखा जाता है जो पत्रकारिता से स्नातक किये रहते हैं। संस्थाओं द्वारा उन्हें विश्वास दिलाया जाता है वह रिपोर्टर हैं। उनका आई - कार्ड पर सिटी रिपोर्टर का तमगा लगा रहता है। बाइक के आगे अंग्रेजी के बड़े - बड़े अक्षरों में प्रेस लिखवाया जाता है। यह वह ब्रह्म मोह पास है जिसके अंदर जाने पर कोई नहीं निकल पाता है। पत्रकार बनने की जगह सिर्फ संवाद - सूत्र बन कर रह जाते हैं। कुछ महीने काम कर लेने के बाद जब वह अपनी तनख्वाह बढ़ाने की बात करता है तो उसके सामने मीडिया हाउसेस द्वारा फण्ड का रोना रोते हुए अपना असली चेहरा दिखाते हैं। साथ में यह भी बताया जाता है कि तुममें सिर्फ लिखने की क्षमता है टेक्निकल नहीं होने के कारण हम तुम्हें कितना पैसा दे सकते हैं !
कोई चारा नहीं देखते हुए वह नया पत्रकार मन मसोस कर के दुबारा काम पर लग जाता है। उस 2000 के लिए उसे कभी भी किसी भी जगह किसी भी वक़्त पर भेज दिया जाता है। घिरनी की तरह नचाया जाता है। इस घिरनी पत्रकारिता के चक्कर में पत्रकारिता के अन्य आयाम जैसे फ़िल्म, संदर्भ पत्रकारिता, एडिटिंग, किताबों का अध्ययन ये सब कहीं पीछे छूट जाता है। वैसे भी इन तमाम विषयों पर भी पटना में कोई स्कोप नहीं है। वह नया पत्रकार सिर्फ और सिर्फ संवाद - सूत्र बन कर रह जाता है। 4 - 5 साल काम करने के बाद तनख्वाह पाँच हज़ार तक जाती है। अंत तक आप टिक ही नहीं सकते हैं
सिर्फ माइक पकड़ना और कैमरा के सामने के लालच में वह नया पत्रकार किसी दूसरे क्षेत्र में जाने का सोचना भी छोड़ देता हैं। इस दौर में ऐसे पत्रकार बहुत जगह हाथ - पैर मारते हैं कहीं कुछ अच्छे जगह हो जाये। पर अफसोस पटना की पत्रकारिता आपका हर जगह शोषण करती है।
पटना में रह कर पत्रकारिता करने वाले लोगों को बिहार के प्रिंट मीडिया का हाल अच्छी तरह से पता होगा। प्रिंट मीडिया में नौकरी पाना लौहे के चने चबाने जितना कठिन है। उन्हें आज के समय में एक व्यक्ति के अंदर छः व्यक्तियों के गुण वाला पत्रकार की खोज रहती है। उस नए पत्रकार को नौकरी पर रखने से पहले उसका खुद का बनाया हुआ सूत्रों का जाल हो। दूसरा उसे खबरें लिखनी आनी चाहिए। तीसरा संपादक जब जो कह दे उसे वह करने के लिए तैयार रहना चाहिए। चौथा पेज डिज़ाइन करना आना चाहिए। पाँचवा उप संपादक का कार्य आना चाहिए। और,  अंत में छठा आपके पास पत्रकारिता की डिग्री हो। इन मानकों पर कोई गलती से खड़ा नज़र आता है तो उसकी शुरुआती तनख्वाह ज्यादा से ज्यादा 8000 तक होती है। अधिकतर लोग पेज डिज़ाइन के नाम पर छांट दिए जाते हैं। उन्हें तब होश आता है कि कॉलेजों में तो पेज डिज़ाइन के नाम पर तो कभी कुछ बताया ही नहीं गया। 
प्रिंट मीडिया या किसी भी मीडिया में लोग सच्चाई लिखने की मकसद से आते हैं। उन्हें कॉलेज के दिनों से ही ये वहम निकाल देने की सलाह यहाँ दी जाती है। बात सही भी है, प्रिंट मीडिया सरकार की चाटूकारिता में लगी हुई है तो वेब पोर्टल किसी पार्टी विशेष या व्यक्ति विशेष की। 
कुछ हिम्मती वैसे भी होते हैं जो कुछ लोगों का दल बना कर पत्रकारिता में स्टार्टअप नाम की चीज़ शुरू करते हैं। आईडिया नए होने के कारण उन्हें शुरुआती सफ़लता काफी मिलती है। पर बाद में वही समस्या सामने आती है फण्ड। फण्ड नाम का जो राक्षक मुँह खोले खड़ा पत्रकारिता के क्षेत्र में इसने कभी भी पत्रकारिता को सही राह पर चलने नहीं दिया है। जिस किसी ने फण्ड जारी की खबरें अपने हिसाब से चलवाई। 
इन सबके इतर कुछ ऐसे पत्रकार भी है जो खुद का चैनल बनाने हुए हैं। उस चैनल में वही सबकुछ हैं। कहने का मतलब वन मैन आर्मी। अकेला बन्दा माइक कैमरा लेकर निकल पड़ता है रिपोर्टिंग करने। खुद एडिट भी कर लेता है। यूट्यूब और फेसबुक के माध्यम से उसे चला भी देता है। ऐसे पत्रकारों से एक सवाल है - भाई कमाते कितना हो ?
पटना में रहते हुए पत्रकारिता करनी है और पैसे भी अधिक कमाने है, तो इसका सीधा सा एक रास्ता है। पत्रकार नहीं दलाल बनो।
ऐसे दलाल बनों की बिस्कोमॉन भवन का ड्राइविंग लाइसेंस बनाने वाला दलाल भी शर्मा जाएं। बिहार में मैंने ऐसे कई वरिष्ठ पत्रकारों को नेताओं, बिल्डरों के चरणों मे गिरते देखा है। पत्रकारिता में दलाली की उत्कृष्ट उदाहरण क्या हो सकता है। चुनाव के समय बाहुबली नेता के घर में जाकर कैमरे के सामने पूछना - क्या जी ये नेता जी कुत्ता है ? नास्ता में क्या खाता है ये कुत्ता ?
इस पंक्ति से पत्रकारिता के नए विद्यार्थी बहुत कुछ सिख सकते हैं। खबरों की एंगल कैसे बनाया जाता है। वह कुत्ता अगर आपके इलाके का होता तो और भुखमरी से मर जाता तो कोई बात नहीं। लेकिन नेता जी का कुत्ता है तो उसे तो कैमरे पा आना ही था। 
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खैर, मुद्दा ये है कि इस क्षेत्र में रहना है तो बिहार छोड़िए। बाहर निकलिए, इसी क्षेत्र में अधिक रास्ते आपको मिलेंगे। जिसमें आपको पैसे भी अच्छे प्राप्त होंगे। लेकिन पटना में रहते हुए इस लाइन में रहना तो जीवन भर काम करने के बाद भी आप 10 हज़ार से 15 हज़ार तक की नौकरी कर पाएंगे। अखबारों में यही सैलरी 25 हज़ार तक जा सकती है।दलाली करने के बाद बेशक लाख रुपये यहाँ कमा सकते हैं।
जब आप अपने बाहर के दोस्तों को देखेंगे तो जो आराम की नौकरी में 50 हज़ार तक कमा रहा है और आप सिर्फ 5 हज़ार तो उस समय आपके पास सिर्फ हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं होगा।
इस लाइन को छोड़े या फिर इस शहर को छोड़े।


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