Sunday, November 11, 2018

समय का फेर..

इंसान की प्रवृति होती है, वह कभी भी एक चीज़ में खुश नहीं हो पाता है। वह हमेशा बदलाव खोजते रहता है। हम सब इस प्रक्रिया से गुजरते हैं। अधिकांश समय, लोगों से सुनते हुए मिल जाता है, “छुट्टी मिले तो कही घूम के आया जाए”।
लोग अपने दिनचर्या वाले जीवन से बहुत जल्दी ऊब जाते हैं।
नयेपन और शांति की तालाश में यूरोप के बहुत लोग साल भर के बचाए हुए पैसों से भारत और नेपाल जैसे जगह घूमने आते हैं।
वह चीज़ जिसे पाने की लालसा हो, वह मिल जाने के बाद उसका आकर्षण ख़त्म हो जाता है। जब मेरे पास काम नहीं था, तो पागलों की तरह काम ढूंढ रहा था। उस अज्ञातवास के दिनों में लिखने की आदत लग गयी।  काफी सारी कहानियां लिख डाली। दो-तीन उपन्यास का प्लाट तक तैयार कर लिया था।
लेकिन, यह मेरी मंज़िल नहीं थी। मुझे नौकरी चाहिए थी। नौकरी मिली भी तो अपने पसंद लायक मिल गयी। पत्रकार की नौकरी। रोज़-रोज़ कुछ न कुछ लिखते ही रहना है। पर हुआ क्या? हर इंसान की तरह आकर्षण खत्म हो गया। 10 से 7 बजे की नौकरी। घर आते - आते आदमी बेड पर थक के बेहोश। सुबह आफिस के लिए देर न हो तो इसलिए आदमी सड़क पर इंसान हो कर रोबोट बन गया होता है। मुझे याद है 2015 का दुर्गापूजा मैं दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में था। मुझे पटना की बहुत याद आ रही थी। मन मसोस कर मैं दुर्गापुर में रह गया। होमटाउन पटना होने के कारण होम सिकनेस थी। लेकिन तीन साल में ही ऐसा क्या हुआ जो 2018 के दुर्गापूजा में अपना टिकट धनबाद करवा लिया। बेशक पटना मेरा अपना है, लेकिन दूसरों की तरह मैं भी ऊब चुका था। इसलिए दुर्गापूजा जैसे पर्व में पटना छोड़ कर धनबाद गया। नयापन और शान्ति के खोज में।
आज  मुझे नौकरी मिल चुकी है। रोज़ लिख भी रहा हूँ। लेकिन जो मैं लिखता था, वह नहीं लिख पा रहा हूँ। तीन उपन्यास और दो कहानी का प्लाट पिछले एक साल से दिमाग में चल रहा है। लिखा कितना है “जीरो"।
अब तो दिमाग यह भी सोचने लगा है, कहीं नौकरी पाने के चक्कर में मैंने अपने आप को खो दिया क्या? मुझे कहानीकार या उपन्यासकार बनना था। क्या बन गया 9 घण्टे काम करने वाला कर्मचारी या रोबोट। जो घर आता है तो सो जाता है। सुबह फिर भागता है।
यह इंसान अब नौकरी से भी ऊब रहा है। क्योंकि मुझे अपने सारे काम खत्म करने है। बाकी बचे रचनाओं को खत्म करना है। उसके लिए समय चाहिए।
मेरी किताब आने वाली है। जानबूझकर कर मैं उसमें देरी करवा रहा हूँ। क्योंकि मेरा दिमाग अभी शांत नहीं है।
सब समय का फेर है।।
देखते है कब तक अपना बचा हुआ प्रोजेक्ट खत्म कर पाऊंगा?
i. परिकल्पना - दूसरा रक्षक (उपन्यास का दूसरा भाग)
ii. बदला-प्रचंड है ( कहानी)
iii. पहली सैलरी (कहानी)
iv. साइड A & साइड B (दूसरा उपन्यास)
v. छः रास्ते... (तीसरा उपन्यास)

Thursday, November 8, 2018

भोजपुरी फिल्मों का सफ़र....

बचपन में हम सब अपने स्कूल के पुस्तक या किसी  सामान्य ज्ञान के पुस्तक में यह जरूर पढ़ें होंगे, पहली भोजपुरी फ़िल्म - ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’। 
poster of first bhojpuri film

पर कितनों ने देखा है?
पिछले 9 साल से विश्व संवाद केंद्र बिहार की स्क्रीनिंग सोसाइटी, ‘पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी’ के तरफ से हर शनिवार को एक फ़िल्म बड़े पर्दे (प्रोजेक्टर) पर फ्री में दिखाई जाती है। मकसद साफ है, बिहार की जनता में अच्छी फिल्में देखने का रुझान पैदा हो। फ़िल्मो का ज्ञान विकसित हो, ताकि दर्शक अच्छी फिल्में और बुरी फिल्मों में अंतर स्पष्ट करना जान सके।
screening of first bhojpuri movie in VSK Hall on 03.11.2018

इसी क्रम में पिछले शनिवार 03.11.2018 को पहली भोजपुरी फ़िल्म  ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’  प्रदर्शित की गई। 1963 में आई पहली भोजपुरी फ़िल्म एक घण्टे छियालीस मिनट की है। फ़िल्म को निर्देशित किया था कुंदन कुमार जी ने, कहानीकार और पटकथा लेखन नाजीर हुसैन ने किया। फ़िल्म को संगीत दिया चित्रगुप्त और शैलेंद्र ने। मुख्य कलाकार में कुमकुम, असीम कुमार इत्यादि थे।  
फ़िल्म में भोजपुरी अपनी मिठास के साथ परोसी गयी है। उस ज़माने में विधवा विवाह जैसे अत्यंत संवेदनशील मुद्दे को लेकर फ़िल्म बनाना वाक़ई एक चुनौतीपूर्ण कार्य था।  नायक-नायिका के प्यार को दिखाने के लिए दो पत्तों का मेल दिखाना उस ज़माने में ‘बिम्ब’ के इस्तेमाल को दिखाता है। सिनेमा से जुड़े लोग बिम्ब शब्द का अर्थ जानते होंगे। समाज का क्रूर रूप से नायक-नायिका का जुदा होना। नायिका का दूसरे से विवाह होना। विवाह उपरांत विधवा होना। फ़िल्म की कहानी यहाँ तक सामान्य ही लगती है। दूसरे हॉफ में फ़िल्म गहरे मोड़ पर खड़ी नज़र आती है। विधवा से कोठे की रौनक बनी फिल्म की नायिका का सामना जब अपने पागल बाप से होता है। उस समय नायिका के संवाद दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है, ‘एक वेश्या सभ्य समाज की देन होती है’। 
कहानी सुखद अंत पर खत्म होती है। लेख़क और निर्माण अपने दर्शकों के मन और दिमाग पर कोई बोझ नहीं डालना चाहते थे। इसलिए फ़िल्म सुखद अंत पर खत्म होती है। दर्शक पहले ही काफी दुख झेल चुके हुए रहते हैं। इस फ़िल्म में आपको शोले फ़िल्म की ‘मौसी' भी देखने को मिलेगी।
1963 में बने इस फ़िल्म का अच्छा प्रिंट मिलना बहुत ही मुश्किल है। यह कमी जरूर महसूस हुई। किसी - किसी दृश्य में संवाद पर फ़िल्म का संगीत हावी होते हुए सुनाई देता है। फ़िल्म की ज्यादातर हिस्सों की शूटिंग बिहटा के आसपास हुई है। फ़िल्म में 60 के दशक का आरा स्टेशन, पटना स्टेशन, पटना का गोलघर इत्यादि देखने को मिलता है। उस वक़्त पटना की सड़कों पर बग्गी अधिक देखने को मिलती थी।
फ़िल्म के गीतों को आवाज़ स्वर कोकिला लता मंगेशकर और स्व. मोहम्मद रफी जी ने दिया था।
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कोई भी सिने सोसाइटी में फ़िल्म देखने का सबसे बड़ा फायदा यही होता है, कि फ़िल्म देखने के बाद सदस्यों के द्वारा फ़िल्म पर एक खुली चर्चा होती है। इस तरह के चर्चा से काफी अंदर की जानकारी बाहर निकल कर आती है। एफ़टीआईआई के प्रोफेसर महेश ड्रिग्राजकर अपने तीन दिवसीय पटना दौरे में कहा था, “फिल्में हमेशा बड़े पर्दे पर या स्क्रीनिंग सोसाइटी में ही देखनी चाहिए”। देखने के बाद उसपर चर्चा जरूर होनी चाहिए। चर्चा होने से ज्ञानवृद्धि भी होती है और हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है। 
open discussion

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फ़िल्म खत्म होने के बाद इस फ़िल्म की भी चर्चा शुरू हुई। पता चला फ़िल्म की कहानी 1950 के लगभग तैयार हो चुकी थी। उस दौर में हर क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बन रही थी। इसी बीच बिहार की आञ्चलिक भाषा से फिल्म निर्माण की अवधारणा सबसे पहले अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनवाई की थी। मूलतः वाराणसी की रहने वाली जद्दनवाई ने इस संदर्भ में वाराणसी के ही प्रख्यात हिन्दी फिल्मों के खलनायक कन्हैयालाल से सर्म्पर्क किया। श्री लाल ने अपने मित्र और हिन्दी फिल्मों के चरित्र अभिनेता व लेखक नाजीर हुसैन को इसके लिए प्रेरित किया।
इसके बाद सन 1960 में राजेंद्र बाबू (स्व. डॉ. राजेंद्र प्रसाद) को इस फ़िल्म की कहानी सुनाई गई। उसके बाद राजेन्द्र बाबू के आग्रह पर इस फ़िल्म का निर्माण शुरू हुआ। 
दो साल अथक प्रयास के बाद अपनी मिठास लिए पहली भोजपुरी फ़िल्म ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो’ बन के तैयार थी। इसकी पहली स्पेशल स्क्रीनिंग राजेन्द्र बाबू के लिए सदाकत आश्रम में की गई। इसके बाद 22 फरवरी 1963 को पटना के वीणा सिनेमा में रिलीज़ की गई। पूरे पाँच लाख में बनी फ़िल्म उस जमाने में तीस लाख की कमाई की थी।
भोजपुरी फ़िल्मो का वह स्वर्णिम दौर था। उसके बाद भोजपुरी में फिल्में लगातार आने लगी। भोजपुरी भाषा की दूसरी फिल्म “बिदेशिया” आयी। इस फ़िल्म ने भी सफलता के झंडे गाड़े। 62 से 70 के बीच भोजपुरी फ़िल्म पूरे देश में प्रसिद्ध हो रही थी। उसके बाद इसमें थोड़ी सी गिरावट देखने को मिली। सन 1980 में आई भोजपुरी फ़िल्म “दंगल” ने भोजपुरी भाषा को उठाने का काम तो किया, लेकिन अधिक सफल नहीं हो सका। उसके बाद भोजपुरी फिल्मों को लोग भूलते चले गए। 
उसके बाद दौर आया 2004 का जिसमें मनोज तिवारी अपनी पहली फ़िल्म “ससुरा बड़ा पईसावाला” लेकर दर्शकों के बीच आएं। वह फ़िल्म सफलता का परचम लहरा दिया। उसके बाद भोजपुरी भाषा में अभी तक फ़िल्मो का बनना जारी है। इन सब के बीच सोचने की बात है वर्तमान में बनी भोजपुरी फिल्में और 1963 क दशक में बनी पहली भोजपुरी फ़िल्म में क्या अंतर है? 
हमने अपने जड़ को भुला दिया। उस दौर में गीत लिखे जाते थे ‘हे गंगा मइया तोहे पियरी चढ़ैबो, साइयाँ से कर दे मिलनवा’, आज लिखे जाते हैं ‘पियवा से पहले हमार रहलु’। भोजपुरी के स्वर्णिम दौर में लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी जी जैसे गायक अपनी आवाज़ देते थे। जिसे पूरा देश गुनगुनाता था। आज के भोजपुरी गीतों को हम सबके सामने गा भी नहीं सकते हैं। वह दौर था जब भोजपुरी फ़िल्म को देखने के लिए लोग बैलगाड़ियों में बैठकर आते थे। 
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भोजपुरी भाषा में बनने वाली फिल्मों का यह हस्र क्यों हुआ? इसके जवाब में इरशाद खान(स्क्रिप्ट-राइटर) बताते हैं, पहले फिल्में दर्शकों के हिसाब से बनती थी। आज वितरकों (डिस्ट्रीब्यूटरों) के हिसाब से बनने लगी है। वितरकों को केवल पैसे से मतलब होता है, इसलिए अच्छी फिल्में दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती है। वितरकों ने अपनी सोच हमारे दिमाग मे इतना डाल दिया है, कि हमने भी मान लिया है अश्लीलता ही भोजपुरी का पर्याय है। दरसल ऐसा है नहीं, हमे इस सोच से निकलना होगा। अच्छी फ़िल्मो का माँग करना होगा।
जानकारी के लिए बता दूँ, भोजपुरी की ऊंचाई आप इसी बात से लगा सकते हैं। बचपन मे सुना गीत ‘चंदा मामा दूर के' सबसे पहले भोजपुरी में गाई गयी थी। इसके बोल हैं ‘ऐ चंदा मामा आरे आवा, पारे आवा' , इसे आवाज़ दिया है  स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने। आप सब इसे यूट्यूब पर खोज के सुन सकते हैं।।।
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अगले शनिवार को यानी 10.11.2018 को 1948 में बनी इटालियन भाषा की वर्ल्ड क्लासिक फ़िल्म BICYCLE THIEVES प्रदर्शित की जाएगी। इस फ़िल्म को सैकड़ो बार देखकर सत्यजीत रे फ़िल्ममेकर बने थे।
next saturday BICYCLE THIEVES



अभिलाष दत्ता 

Tuesday, November 6, 2018

दीपावली : तब और अब...




रंगोली
दीवाली आ चुकी है। आज धनतेरस है  पिछले एक हफ्ते से टालते - टालते घर में रखे भगवान मंदिर को सफाई करने में लग गया। ईश्वर के प्रति मेरी भावना शून्य है। ऐसा इसलिए नही की मैं भगवान को नही मानता हूं या कुछ। दरसल मेरे मन में श्रद्धा के भाव उत्त्पन्न नहीं होते है।
खैर, मुद्दे पर आते हैं।
कल की दीवाली और आज की दीवाली में क्या अंतर है? आज अपनापन नहीं है। मुझे याद है जब बाबा दादी थे उस समय दीवाली के समय पोता - पोतियों के मुँह से फरमाइश गिरने की देर रहती थी। अगले पल वह समान सामने मौजूद। वह दौर अलग था। संयुक्त परिवार की अवधारणा हुआ करती थी। घर के सभी लोग नए कपड़े खरीदते थे। सब मिल कर दीवाली की तैयारी महीनों से लग जाते थे। बच्चें दिन - दिन भर धूप में पठाके डाल कर उसकी रखवाली भी करते थे। भारतीय परंपरा ने हमें ये दिमाग में डाला बहने साफ- सफाई में माँ चाची की हाथ बटाएंगी। घर के लड़के पापा चाचा के साथ मार्केटिंग की जिम्मेदारी होती थी। वह अलग बात है असली मार्केटिंग मम्मी - पापा ही जा कर करते थे। उन्हें घर का बजट पता रहता था। उस बजट में भी वह सबके पसंद की सामग्री ले आते थे। खुशियों का त्योहार हुआ करता था दीवाली। पटाखों का भी वर्गीकरण भारतीय परिवारों में देखने को मिलता था। छोटे बच्चे बीड़ी बम, बड़े भैया हाइड्रो बम, उसके बाद पूजा कर के आंगन में आई घर की महिला मंडली। पापा और चाचा की जिम्मेदारी होती थी, महिलाओं के लिए अनार, चकरी , छुरछुरी जैसे पटाखे बचा के रखें। घर में नई बहू आयी है तो उनके लिए भी हाइड्रो बम बचा के रखना होता था। नयी भाभी या नयी चाची घर के बच्चों के साथ पहले आवाज़ वाले बम का मजा फिर तस्वीर के लिए सभी के साथ अनार और चकरी। यह क्रम चलते रहता था। दूसरे दिन घर के बच्चे जल्दी उठ कर मुआयन पर निकलते थे। रात में कौन - कौन सा पटाखा नहीं जला उसे खोजा जाए।
अब सब कुछ बदल गया है। बाबा दादी वाली पीढ़ी कब की खत्म हो गयी। अब उनका जगह माँ - पापा लोग ले चुके हैं। लेकिन उन्हें पोता - पोतियों का सुख प्राप्त नही है। मेरे जानकारी में एक सिन्हा जी है सरकारी डॉक्टर हुआ करते थे। अब अवकाशप्राप्त है। बेटा सब पढ़ के जेंटलमैन हुए तो दूसरे राज्यों में चले गए। छुट्टी मिलती नहीं है। इसी बीच सिन्हा जी से भेंट हुई। किसी बिजली मिस्त्री से अपने बंगले पर लाइटिंग करवा रहे थे। खूबसूरत बंगला उजले रंग का उसी रंग का लाइटिंग। लेकिन देखने वाला कौन? सिर्फ सिन्हा जी और उनकी धर्मपत्नी। 
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बचपन में मुझे पटाखों से बहुत लगाव था। बाबा सबके पसंद के पटाखे लाते थे। मुझे वह साँप वाला बहुत पसंद था। जिसमें माचिस लगाने से उसमें से सांप की आकृतियां निकलती थी। उसमें धुंए की मात्रा की अत्याधिक रहती थी। धीरे - धीरे युवावस्था में आने लगा। 2013 में घर बटवारें का एक अजीब सा धक्का लगा। उसके बाद से सब पर्व से ही मन उचट सा गया। क्या दीवाली - क्या होली? सब एक जैसा। 
इन वर्षों ने मुझे बहुत कुछ सिखाया। घर का सबसे ज़िद्दी लड़का का तमगा मिला हुआ था। आज दीवाली के दिन घर सफाई में लगा हुआ है। मंदिर साफ - सफाई उसे सजाना। फिर दोपहर दो बजे से रात के नौ बजे तक दीवाली की अकेले खरीददारी करना। धनतेरस पर एक कटलरी सेट खरीदा। मुझे तो यह भी नहीं पता था उसे कटलरी सेट बोला जाता है। 
कटलरी सेट 
अकेलापन काफी कुछ सीखा देता है जीवन में। बेटा के साथ - साथ घर की बेटी भी बन जाता हूँ। 
खैर अब पुरानी कड़वाहट को भुला कर सब एक हैं। फिर भी कहीं - कहीं उसके अंश मौजूद है। 
पटाखे अंतिम बार कब फोड़े थे, यह बात स्मृतिपटल पर विलुप्त हो गयी है। वह कहते हैं ना आप जिस परिस्थिति में होते हैं, आप उसी में ढलने लगते हो। मेरे पास बारह साल से एक झबरा ( पामेरियन) कुतिया है। मेरे लिए तो अभी भी वह मेरी बच्ची है। लेकिन सही मायने में अब वह बूढ़ी हो चुकी है। पटाखों के आवाज़ से एकदम डरी सहमी रहती है। वही स्थिति मेरे साथ है। तेज आवाज़ वालो पटाखों से मुझे भी डर लगता है। 
आज बाज़ार जाते समय कुछ बच्चें तेज़ आवाज़ वाले पटाखे फोड़ रहे थे। वह आवाज़ सुन कर मेरे मुँह से निकल गया , “कितने जाहिल बच्चें है”। वैसे बच्चें कभी जाहिल नहीं होते हैं। जाहिल वाली पंक्ति तो डर के कारण मुँह से निकल आया। 
ऊपर की पंक्ति में लिखा था, बाबा - दादी हम पोता - पोतियों की सभी माँगे पूरी कर देते थे। उस समय पैसों की अहमियत नहीं पता रहती थी। अब अहमियत पता है। इसलिए धनतेरस में मुझे जो चाहिए था मैंने मटिया दिया। मेरे लिए तो दीवाली वही टीवी रूम में टीवी देखते हुए बीत जानी है। मैं और ब्राऊनी (मेरी पालतू कुतिया) और मेरा मोबाइल। जिसमें पीयूष मिश्रा का गाना - “ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है”।
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आप सभी को मेरी ओर से शुभ दीवाली। पटाखे फोड़ना है तो  जम के फोड़िये नहीं फोड़ना है तो मत फोड़िये।
घर का मंदिर की सजावट आप सब को कैसी लगी जरूर लिखियेगा।
मंदिर 


अभिलाष दत्ता

Sunday, October 28, 2018

कैथी की कथा

लिपि या लेखन प्रणाली का अर्थ होता है किसी भी भाषा की लिखावट या लिखने का ढंग। ध्वनियों को लिखने के लिए जिन चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, वही लिपि कहलाती है। लिपि और भाषा दो अलग अलग चीज़ें होती हैं। भाषा वो चीज़ होती है जो बोली जाती है, लिखने को तो उसे किसी भी लिपि में लिख सकते हैं।
आज के समय में बहुतायत लिपि विलुप्त हो चुके हैं या विलुप्तप्राय की ओर अग्रसर हैं। इतिहास के पन्नो में बिहार लिपि के नाम से प्रसिद्ध कैथी लिपि आज पूरे विश्व से विलोपन के कगार पर पहुँच चुकी है। कैथी लिपि की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कालांतर में इसे कायस्थों की लिपि कहा जाने लगा। पर इस बात का भी कोई ठोस सबूत नहीं प्राप्त होते हैं।
कैथी लिपि की विशेषता यह थी उसमें ऊपर की ओर लकीरें नहीं होती थी। यह एक तरह से शॉर्टहैंड लिपि थी। इसे बाएं से दाएं की ओर लिखी जाती थी
कैथी लिपि का इतिहास” नामक किताब के लेखक  भरैव लाल दास ( ग्राम - रौतपार ) बताते हैं , की सामान्यतः आज के समय में कैथी लिपि को मैथली लिपि मान लेते हैं। लेकिन यह बिल्कुल गलत है। मिथिलाक्षर की अपनी एक अलग लिपि है, और कैथी एक अलग लिपि है।
बी.एल. दास कैथी लिपि के इतिहास के बारे में बताते हैं इस भाषा की उतपत्ति ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। इसका नाम कैथी क्यों पड़ा इसकी सटीक जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।
लिपि के इतिहास में सबसे पहले ब्राह्मणी लिपि उसके बाद खरोष्ठी लिपि आती है। उसके बाद कुटिलाक्षय लिपि का आगमन हुआ। कुटिलाक्षय लिपि के बाद कैथी लिपि की शुरुआत हुई। कैथी लिपि का क्षेत्र काफी दूर तक फैला हुआ था। पूरा बिहार, बंगाल के मालदा, झारखंड, पूर्वी उत्तरप्रदेश तक इस लिपि को जानने वाले लोग मौजूद थे। उस समय कैथी लिपि से ही मगही, भोजपुरी, मैथली, अंगिका, बज्जिका एवं खड़ी भाषा लिखी जाती थी।
भैरव लाल दास 
विद्वानों की लिपि संस्कृत थी। उस समय साक्षरता काफी कम थी। इस कारण कैथी लिपि का उपयोग सिर्फ साक्षर लोग कर पाते थे। विद्यालयों में इस लिपि की पढ़ाई करवाई जाती थी। हर साक्षर लोग इस लिपि को जानते थे।
1540 में शेर शाह सूरी को यह समझ में आ चुका था कि कैथी एक जनलिपि है। इस बात को ध्यान रखते हुए उसने दो कर्क की व्यवस्था की , जिसे कार्कऊम कहा गया। एक कार्कऊम का काम था दो रैयतों के बीच भूमि सम्बंधित दस्तावेज को कैथी लिपि में तैयार करना। दूसरे कार्कऊम का कार्य था मालजुगारी भत्ता को फ़ारसी लिपि में तैयार करना।

उसके बाद भारत में अंग्रेजो का अधिपत्य हो गया। 1890 ईसवी में कैथी लिपि को ख़त्म करने का कुचक्र चलाया गया। जबकि 1880 में एक अंग्रेज ग्रिडसन ने कैथी लिपि का फॉन्ट तैयार करवाया था। अंग्रेजों की फुट डालो और राज करो कि नीति पर अंग्रेजो ने यह अपवाह फैला दी कि यह सिर्फ कर्ण कायस्थों की लिपि है। उस समय बही खाता देखने का कार्य कायस्थों का होता था।
अंग्रेजो ने आम लोगों के दिमाग में यह डालना शुरू किया कि कायस्थ इस लिपि का फायदा उठा कर बही खाते में कुछ भी लिख देते हैं। जिसे आम जनजीवन पढ़ने में असमर्थ रहते है।  इस बात को तूल देते हुए ब्राह्मण समुदाय के लोगों ने इसका विरोध सबसे पहले किया। उस वक़्त ब्राह्मणों और कायस्थों में छतीस का आंकड़ा होता था। 1930-1935 आते - आते यह लिपि खत्म होने के कगार पर आ चुकी थी। आज़ाद भारत का पहला सेन्सस रिपोर्ट 1952 में आया जिसमें कैथी लिपि का कहीं भी जिक्र नहीं था। ( स्रोत - कैथी लिपि का इतिहास - लेखक बी.एल. दास )
यूनेस्को अपने रिपोर्ट में लिख चुकी है , “जब एक लिपि विलुप्त होती है, तो उसके साथ - साथ एक पूरी संस्कृति और इतिहास विलुप्त हो जाती है"। कैथी का इस तरह अचानक खत्म हो जाना एक बहुत बड़ी मुसीबत बन के सामने आने वाली थी।
इस लिपि को जानने वाली पीढ़ी ने अपने आने पीढ़ी को इस लिपि से अवगत नहीं करवाया। और न ही इस लिपि में रखे दस्तावेजों को दूसरे लिपि में अनुवाद करवाया।
भारत में सबसे अधिक विवादित जमीन बिहार में है। इसका मुख्य कारण है कैथी लिपि। जमीन के सभी पुराने कागज़ात कैथी लिपि में है, जिसे पढ़ने वालों की संख्या न के बराबर है। 50%-80% तक पूरखों की ज़मीन के कागज़ कैथी लिपि में है।
जमीन से जुड़ा कोई भी विभाग इन कागज़ों को नहीं पढ़ पाता है। न बैंक इन कागज़ों को देख कर लोन दे पाती है। न ही ज़मीन विवाद के मामले में न्यायालय न्याय कर पाता है।
बी.एल. दास बताते हैं बिहार में तंत्र मंत्र की किताबें, लोक गीत यहाँ तक कि सूफी गीत भी कैथी लिपि में लिखी जा चुकी है। राजेन्द्र प्रसाद अपने पत्नी को कैथी लिपि में ही चिट्ठी लिखा करते थे। भिखारी ठाकुर और महेंद्र मिश्र को जानना है तो आपको कैथी जानना होगा। कर्ण कायस्थ के पँज्जी व्यवस्था की मूल प्रति भी कैथी लिपि में दरभंगा महाराज के संग्रालय में सुरक्षित है।
कैथी लिपि के संरक्षण के बात पर  बी.एल. दास कहते हैं , संकरक्षण से पहले हमें एक बार इसके इतिहास को देखना होगा। 1826 में कैथी लिपि में बाइबिल प्रकाशित हुई थी। बाद में यही अँग्रेजी हुकूमत ने इसके खिलाफ लोगो मे विद्रोह की भावना जागृत की। कैथी लिपि को कर्ण कायस्थों की लिपि मान कर सबसे पहले पहले विरोध करने वाले ब्राह्मण भी इस लिपि में लिखते थे। सन 1917 में चंपारण आंदोलन में राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी के साथ कैथी लिपि में पत्राचार किया था। राजकुमार शुक्ल जाति के ब्राह्मण थे। मुस्लिम, हिन्दू और क्रिश्चयन तीनों इस भाषा के जानकार थे। यह पूर्ण रूप से झूठ था कि इस लिपि के जानकार सिर्फ कर्ण-कायस्थ हैं।
कैथी लिपि 
कैथी लिपि को कैसे बचाया जाए इसके लिए  बी.एल. दास जी ने 2007 - 2009 तक इसपर अध्यन किया। उसके बाद 2010 में “कैथी लिपि का इतिहास” नामक पुस्तक प्रकाशित करवायी। इस किताब में कैथी लिपि का इतिहास, कैथी का विकास यात्रा, कैथी लिपि को लेकर जो भ्रांतियां है उसके बारे जानकरी है।
2010 के बाद बी.एल. दास ने प्रण कर लिया इस लिपि को मरने नहीं देना है। कैथी लिपि से जुड़े तमाम दस्तावेजों को उन्होंने अनुवाद करना शुरू किया। एक हज़ार लोगों को मुफ्त में इस लिपि का ज्ञान देने का संकल्प कुया। आज के समय में वह तीन सौ पचास से अधिक लोगों को इस लिपि का ज्ञान दे चुके हैं। पटना के पुरातत्व विभाग में इस लिपि के जानकार हो इसका प्रयास हो रहा है। “सी- डैक” पुणे में कैथी लिपि का फॉन्ट कंप्यूटर पर विकसित हो सके इसके लिए बी.एल. दास जी वहाँ के संकरक्षक मंडल में भी शामिल है।
मिथिला यूनिवर्सिटी में इसकी पढ़ाई शुरू हो चुकी है। पटना यूनिवर्सिटी भी इस लिपि की पढ़ाई शुरू करने पर विचार कर रही है।
बी.एल. दास के अथक प्रयास से बिहार में ज्यूडिशियल परीक्षण में कैथी लिपि का परीक्षण की शुरुआत हो चुकी है। बिहार सरकार इसे अपनी राज्य लिपि घोषित कर दे , इसके लिए वह काफी मात्रा में बिहार सरकार को पत्र लिख चुके हैं।


इतने प्रयासों के बावजूद भी पटना के एक भी पुस्तकालयों में कैथी लिपि की किताबें नगण्य स्थिति में है। द्वारिका प्रकाशन के तहत बी.एल. दास जी की किताब  प्रकाशित हुई थी। आज के समय उस प्रकाशक के पास भी किताब की एक प्रति भी मौजूद नहीं है।

कर्ण कायस्थ की पंजी व्यवस्था


सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की अस्थि से बनी थी कायस्थ की काया। ब्रह्मा ने यह चित्र गुप्त तरीके से बनाया था, इसी कारण इस कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रखा गया। पद्म पुराण के अनुसार कायस्थ कुल के ईष्ट देव श्री चित्रगुप्त  जी के दो विवाह हुए। इनकी प्रथम पत्नी सूर्यदक्षिणा (जिन्हें नंदिनी भी कहते हैं) सूर्य-पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए-भानू, विभानू, विश्वभानू और वीर्यभानू। इनकी द्वितीय पत्नी ऐरावती (जिसे शोभावती भी कहते हैं) धर्मशर्मा नामक ब्राह्मण की कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए चारु, चितचारु, मतिभान, सुचारु, चारुण, हिमवान, चित्र एवं अतिन्द्रिय कहलाए। इसका उल्लेख अहिल्या, कामधेनु, धर्मशास्त्र एवं पुराणों में भी किया गया है। चित्रगुप्त जी के बारह पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की बारह कन्याओं से सम्पन्न हुआ। इसी कारण कायस्थों की ननिहाल नागवंश मानी जाती है और नागपंचमी के दिन नाग पूजा की जाती है। इन बारह पुत्रों के दंश के अनुसार कायस्थ कुल में 12 शाखाएं हैं जो - श्रीवास्तव, सूर्यध्वज, वाल्मीक, अष्ठाना, माथुर, गौड़, भटनागर, सक्सेना, अम्बष्ठ, निगम, कर्ण, कुलश्रेष्ठ नामों से चलती हैं। 

चित्रगुप्त के सातवें पुत्र चित्रचरण थे जिनका राशि नाम दामोदर था एवं उनका विवाह देवी कोकलसुता से हुआ। ये देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे। चित्रगुप्त जी ने चित्रचरण को कर्ण क्षेत्र (वर्तमाआन कर्नाटक) में राज्य स्थापित करने के लिए भेजा था। इनके वंशज कालांतर में उत्तरी राज्यों में प्रवासित हुए और वर्तमान में नेपाल, उड़ीसा एवं बिहार में पाए जाते हैं। ये बिहार में दो भागों में विभाजित है: गयावाल कर्ण – गया में बसे एवं मैथिल कर्ण जो मिथिला में जाकर बसे। इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, निधि,मल्लिक, लाभ, चौधरी, रंग आदि पदवी प्रचलित हैं। मैथिल कर्ण कायस्थों की एक विशेषता उनकी पंजी पद्धति है, जो वंशावली अंकन की एक प्रणाली है। कर्ण 360 अल में विभाजित हैं। इस विशाल संख्या का कारण वह कर्ण परिवार हैं जिन्होंने कई चरणों में दक्षिण भारत से उत्तर की ओर प्रवास किया। यह ध्यानयोग्य है कि इस समुदाय का महाभारत के कर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है।कर्ण कायस्थों की विशेष पद्धिति पंजी व्यवस्था के बारे में पन्नजीकार हेमंत लाल दास (लबानी, मधुबनी) मैथिली में लिखी जयदेव मिश्र की मैथिली गीतगोविन्द का सन्दर्भ देकर बताते हैं मिथिला के सबसे पहले राजा मिथि थे।
Maithli Geetgovind
फिर कर्नाट वंश के राजा नान्य देश के राजा नान्यदेव के शासनवर्ष में मिथिला का सम्बंध कर्नाटक जैसे राज्यों के साथ भी स्थापित हुआ। कर्नाटक के राजा ने अपने मंत्री श्रीधर दास को ग्यारवीं शताब्दी में मिथिला राज्य में भेजा। श्रीधर दास मिथिला में कर्ण कायस्थ के बिजपुरुष के रूप में स्थापित हुए। हेमंत लाल दास आगे बताते हैं श्रीधर दास अपने साथ 13 सगे संबंधियों के साथ मिथिला में आकर बसे। सन 1709 में कर्ण कायस्थों की पंजी व्यस्था की शुरुआत हुई। पंजी व्यस्था में हर एक परिवार के घराना, मूल, गोत्र इत्यादि की जानकारियां समेट कर रखी गयी। पंजी व्यवस्था का सबसे पहला मूल पत्र तारक पत्ता अर्थात भोजकपत्र पर लिखा गया। इन सभी बातों का जिक्र मधुबनी के एक गाँव अंधराठाढ़ी के भगवती स्थान के मंदिर के ऊपर लगे शिलालेख में दर्ज है।पंजी व्यवस्था का जब निर्माण हुआ तो कर्ण कायस्थ के 14 मूल तैयार हुए। इसका मुख्य कारण था श्रीधर दास अपने साथ 13 सगे संबंधियों को कर्नाटक से यहाँ लेकर आए थे।  श्रीधर दास खुद कर्नाटक के नवरमवाली से आये थे। मिथिला में इसे नरंगवाली नाम से उच्चारण किया गया। इसी तरह कर्नाटक के सोअनवारी को मिथिला में सोनेवार नाम से उच्चारण किया गया। 
Scan Copy of Geet Govind
हेमंत लाल दास कहते हैं ब्राह्मणों के सबसे उच्च कुल सूत्रीय ब्रहामणों के यहाँ भी पंजी व्यवस्था विद्यामान थी। कालांतर में यह व्यवस्था उनके यहाँ विलुप्त होते गयी। पंजी व्यवस्था की जरूरत क्यों है? इसके जवाब में हेमंत लाल दास कहते हैं इसकी सबसे अधिक जरूरत विवाह - संस्कार  के समय होती है। वर्तमान का उदाहरण देकर वह समझाते हैं कि आज के समय में दूसरे जातियों को अपना मूल तक भूल गए है। कहीं भी शादी संस्कार स्थापित किये जा रहे हैं। लेकिन कर्ण कायस्थों में पंजी व्यवस्था होने के कारण सभी चीज़े सामने आ जाती है। मान लीजिए कर्ण कायस्थ की किसी लड़की का शादी होने वाला है। उसके घर वाले रिश्ता लेकर किसी लड़के वाले के यहाँ जाएंगे। उस समय पंजी व्यवस्था की महत्वा बढ़ जाती है। पंजी व्यवस्था को देख कर मूल बताया जाता है। अगर लड़का और लड़की एक मूल के हुए तो वह शादी कभी नहीं होनी चाहिए। इस बात की पुष्टि विज्ञान भी करती है। उसके बाद लड़का-लड़की के सात पीढ़ियों को देखा जाता है। अगर सातों पीढ़ी में से किसी भी जगह सामानता पायी जाती है तो भी शादी नहीं हो सकती है। सात पीढ़ी में पिता एवं पितामह का मूल, लड़का - लड़की दोनों के मात्रिक(नानी गाँव), माँ मात्रिक, माता महिमात्रिक। नानी के मात्रिक, पितरमात्रिक, दादा के मात्रिक, दादी के मात्रिक। इन सब चीज़ों को मिलाया जाता है। कहीं भी सामानता होगी तो इसको आधिकार ठहरना कहा जाता है। शादी के वक़्त बायो-डाटा से अधिक महत्वपूर्ण यह सारी जानकारी होती है। जिसे एक कागज पर पन्नजीकार के द्वारा लिखवाया जाता है, जिसे परिचय-पत्र कहा जाता है। शादी से पहले सिध्यान्त होता है। जिसमें वर पक्ष और वधु पक्ष समाज के सामने लोटा उठा कर प्रमाणित करते है कि अब उन दोनों परिवारों के बीच संबंध स्थापित हो गया है। इसकी लिखित जानकारी दोनों पक्षों को पन्नजीकार के तरफ से दी जाती है। इसे मैथली में कट कहा जाता है। अगर इसके बाद दोनों पक्षों में किसी कारणवश कोई मनमुटाव होता है तो उस कट के आधार पर कोर्ट में अर्जी दी जा सकती है। सिध्यान्त कि समय दोनों पक्षों को अष्ठजन पत्री दी जाती है। जिसमें दोनों कुल की जानकारी वृस्तृत रूप में मौजूद रहती है।पंजी व्यवस्था की देखरेख के बारे में हेमंत लाल दास बताते हैं  दरभंगा के राजा कामेश्वर सिंह झा ने अपने शासनकाल में पंजी व्यवस्था को कैथी लिपि में संग्रहित करवा के अपने संग्रालय में रखवा दिया। इसके साथ ही दो कायस्थ परिवारों को इसकी जिम्मेदारी दी गयी इस व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए। वह दो परिवार है सिमरा गाँव के संजू परिवार और हैदरपुर के श्याम सुंदर के परिवार को। आज इस व्यवस्था को जानने वाले अधिक लोग है। फिर भी कर्ण कायस्थों के आम जनमानस को इसकी जानकारी नहीं होती है। इसलिए वह सब पन्नजीकार के पास आते हैं। पन्नजीकार का कार्य ही यही है वह पंजी व्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाते रहे। हेमंत लाल दास वर्तमान स्थिति को देखकर थोड़े उदास भी दिखते हैं। वह बताते हैं आज ऐसे बहुत से पन्नजीकार है जो अधिक पैसे लेकर गलत परिचय-पत्र तैयार कर देते हैं। पांचवी पीढ़ी में अधिकार ठहरने के बावजूद भी शादी करवाया जा रहा है। वह बताते है अब तो एक मूल में भी लोग शादी की बात करते दिख रहे हैं। हेमंत लाल दास वर्तमान में कुरथौल पटना में रह कर वर्तमान पीढ़ी को पंजी व्यवस्था की जानकारियां देते रहते हैं। ताकि यह व्यवस्था कभी खत्म न हो सके।

Hemant Lal Das

Tuesday, October 16, 2018

तिथि - कन्नड़ भाषा फिल्म

poster of  "TITHI" movie.
समीक्षा:
पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी की तरफ से कन्नड़ भाषा की फिल्म तिथि का प्रदर्शित किया गया। 2016 में आयी इस फिल्म को गत वर्ष नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया था। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फिल्म को काफी सराहा गया। फिल्म के लेखन और निर्देशन रामा रेड्डी के द्वारा किया गया है। फिल्म के सभी कलाकार इस क्षेत्र के पेशेवर नहीं थे। फिल्म की लोकेशन कर्नाटक के मंड्या जिला के एक छोटे से गाँव की है।
फिल्म में तीन पीढ़ी के अंतर को दिखाया गया है। चैथी पीढ़ी में एक छोटा सी ही सही लेकिन बड़ी खूबसूरत प्यार दिखाने में सफल हुई है।
बहुत ही साधारण कहानी को लेकर फिल्म बनाई गई है। पर इस फिल्म के निर्देशन ने इसमें जान डाल दी है। एक पल के लिए भी आपको अपने जगह से हिलने नहीं देगी। आपको देख कर यह लगेगा की सब कुछ सही हो रहा है, पर काफी सारे सवाल आपको परेशान करेंगे। जिसका जवाब नहीं मिलेगा, क्योंकि हम समाज में घिरे हुए है।
A scene from film Thithi
फिल्म की शुरुआत होती है सेंचुरी गौड़ा से जो 101 साल के है और उनका स्वर्गवास हो जाता है। शताब्दी दादा का बड़ा बेटा जो खुद 70- 80 साल का रहता है, वह गाँव का शराबी है जो दिन भर पागलों की तरह घूमते रहता है। यहाँ हिन्दू धर्म की विवशता को बहुत ही सही तरीके में दिखाया गया है , की चिता को मुखाग्नि बड़ा बेटा ही देगा। चाहे बड़ा बेटा जिस हाल में भी हो। बेटा आग दे कर फिर घुमन्तु जीवन जीने चला जाता है। भारत के किसी भी कोने में हिन्दू धर्म में कोई मरता है तो उसका परिवार भोज देने के लिए बाध्य हो जाता है। आप इसके खिलाफ सवाल नहीं कर सकते हैं। अगर आप सवाल करते है, तो आप अपने समाज को गलत ठहरा रहे है और समाज पर उंगली उठाने का मतलब बहुत बुरा होता है।
अब उस भोज की जिम्मेदारी आती है सेंचुरी गौड़ा के पोते पर और भोज की जो “तिथि” निर्धारित गाँव के ब्राह्मण के द्वारा साथ में उसको यह भी निर्देश मिलता है कि सेंचुरी गौड़ा 101 वर्ष के थे, तो कम से कम 500 लोगों को भोज में निमंत्रण भेजना होगा। वह इतने लोगों के भोज देने में असमर्थ है। लेकिन, समाज मे रहने के कारण वह बेबस है और साथ में बेबस हैं फिल्म को देखने वाले दर्शक वह जान रहे होते है कि यह गलत है। लेकिन, सच्चाई सभी जानते है कि समाज में रहना है तो भोज देना ही होगा। लोग मरने वाले की आत्मा शांति की बजाय मटन कैसा बना है यह चर्चा करते हैं। इसे फिल्म में देखना अपने समाज की याद दिलाता है।
उसका पोता उस भोज के लिए कैसे इंतजाम करता है इसी चीज को फिल्म में दिखाया गया है। हालात उसे इतना कमजोर बना देती है कि वह अपने जिंदा बाप का भी डेथ सर्टिफिकेट बनवा लेता है, ताकि भोज हो सके। एक दृश्य जहाँ दिमाग अटकता है। चैथी पीढ़ी का लड़का जो अपने मोबाइल पर ब्लू फिल्में देखता है और फिर प्यार में पड़ता है। यह दृश्य आज के युवा पीढ़ी को दर्शाती नजर आती है ।
(अभिलाष दत्ता)

लेख्य - मंजूषा की लघुकथा कार्यशाला



लघुकथा कलश का विमोप्चन 


पटना, 14.10.2018. आज के दौर में साहित्य की सबसे अच्छी विधा लघुकथा है। कम शब्दों में सारगर्भित रचना जो इंसानी मन को झकझोर दे वही लघुकथा है। उक्त बातें वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी ने साहित्यिक संस्था लेख्य-मंजूषा और अमन स्टूडियो के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित लघुकथा कार्यशाला में कही।
लघुकथा की जानकारी देते हुए उन्होंने कहा कि बहुत लोग अंग्रेजी के सिनॉप्सिस को लघुकथा समझते हैं, तो कुछ लोग अंग्रेजी की शार्ट स्टोरी को लघुकथा समझते हैं। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। दोनों अलग-अलग भाषाएं हैं। लघुकथा अपने आप में एक पूरी विधा है।
इस कार्यशाला में मुख्य अतिथि प्रोफेसर अनिता राकेश ने कहा कि आज के युवा इस क्षेत्र में काफी अच्छा कर रहे हैं। लघुकथा के क्षेत्र में आज शोध के लिए बहुत सारी लिखित सामग्री उपलब्ध हैं।
मुख्य अतिथि वरिष्ठ पत्रकार ध्रुव कुमार ने कार्यशाला में भाग ले रहे बच्चों को लघुकथा के शिल्प संरचना के पहलुओं से अवगत करवाया। लघुकथा के इतिहास के बारे में जानकारी दी।
लेख्य-मंजूषा की अध्य्क्ष विभा रानी श्रीवास्तव ने लघुकथा के पितामह डॉक्टर सतीशराज  पुष्करणा के आलेख को बच्चों के लिए पढ़ा।
इस मौके पर हरियाणा से छपने वाली पुस्तक “लघुकथा कलश” का विमोचन भी किया गया। इस पुस्तक में बिहार के तमाम लघुकथाकारों की लघुकथा प्रकाशित है। मिर्ज़ा ग़ालिब टीचर ट्रेनिंग कॉलेज की छात्राओं ने लघुकथा से संबंधित अपने सवाल किए।
दूसरे-तीसरे सत्र में सभी प्रतिभागियों ने अपनी-अपनी लघुकथाओं का पाठ किया। वहीं अमन स्टूडियो और लेख्य-मंजूषा ने भविष्य में शार्ट फ़िल्म बनाने की बात कही। इस मौके पर भोजपुरी फ़िल्म ‘माई’ के स्क्रिप्ट राइटर भी मौजूद थे। धन्यवाद ज्ञापन शायर नसीम अख्तर ने किया।

Friday, July 27, 2018

ईमानदारी का इनाम.....?

LATE SHUBHNARAYAN DUTTA  ( D.W.O SITHAMADHI )










मई 2018 खत्म होने जा रहा था , और जून दस्तक देने को तैयार था । पर अभी जून को आने में पाँच घण्टे बाकी थे । इन पाँच घण्टे में बिहार में दुबारा “जंगलराज” की खनक दुबारा सुनने को मिली| बीते 31 मई को सीतामढ़ी में अज्ञात अपराधियों के द्वारा जिला कल्याण पदाधिकारी शुभनारायण दत्त की हत्या कर दी गयी । पुलिस अपना कोरम पूरा करते हुए लाश को लावारिस समझ कर सीतामढ़ी अस्पताल में रख दिया । जब प्रशासन को इस बात की खबर लगी मरने वाला व्यक्ति कोई आम आदमी नहीं बल्कि जिले का कल्याण पदाधिकारी है , तो पूरी प्रशासन नींद से जाग कर सक्रिय हुई । सीतामढ़ी पुलिस के सभी बड़े अधिकारियों की गाड़ी सदर अस्पताल के सामने पार्क हो चुकी थी । 
मीडिया से मुख़ातिब होते हुए सीतामढ़ी एसपी विकास बर्मन ने बताया कि तीन अज्ञात कातिलों ने जिला कल्याण पदाधिकारी के शरीर पर सात गोलियाँ चलाई । जिससे उनकी मौत मौके पर ही हो गयी । 
शुभनारायण दत्त का परिवार पटना के दीघा में रहता है । उन्हें खबर कर दी गयी थी । देर रात बारह बजे शुभनारायण दत्त के परिजन सीतामढ़ी सदर अस्पताल पहुँच चुके थे । लाश का पंचनामा होने के बाद लाश को परिजनों को सौंप दिया गया । 






सामान्यतः , रात के वक़्त उस अस्पताल में पंचनामा नही होता है , लेकिन सीतामढ़ी डीएम के आदेश पर रात में ही पंचनामा किया गया । शायद डीएम साहब हॉस्पिटल में बढ़ रहे भीड़ से परेशान थे । लोगों और मीडिया के तमाम सवालों पर पुलिस वाले बगले झांकने पर मजबूर थे । उन्हें इस बात का अंदेशा लग चुका था , कि अगर शुभनारायण दत्त की लाश सुबह तक सीतामढ़ी में मौजूद रही तो सुबह तक शहर में कर्फ्यू ( धारा 144 ) की नौबत आ सकती है । 

टीवी के खबरों से पता चला कि शुभनारायण दत्त कायस्थ थे । वह मूल रूप से मधुबनी के रहने वाले थे । टीवी पर उनके चचरे भी अरुण कुमार दत्त ने बताया कि शुभनारायण दत्त की छवि एक ईमानदार अफसर की है । शुभनारायण दत्त अपनी इस पोस्टिंग से खुश नहीं थे । वह हमेशा बोलते थे ऑफिस में इतना तनाव है कि कभी - कभी मन करता है कि समय से पहले वीआरएस ले लूँ । 
हत्या को चौदह दिन खत्म हो चुके थे । तस्वीर अब भी धुंधली  थी । सीतामढ़ी पुलिस अब भी खाली हाथ थी । सुशासन में जंगलराज जैसे शब्द धीरे - धीरे सुनाई देने लगी । 
शुभनारायण दत्त के घरवालों के तरफ इस घटना को लेकर रोज़ सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लगातार पोस्ट हो रही थी । ज्यादा से ज़्यादा से लोगों तक यह खबर पहुँचे इसके लिए सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया गया । 
“मैं भारतीय नहीं , मैं कायस्थ हूँ" .... तमाम पोस्ट के बीच एक पोस्ट यह भी फेसबुक पर देखने को मिली । पोस्ट करने वाला शुभनारायण दत्त का ही कोई रिश्तेदार था । अपने पोस्ट में उसने तीखा कटाक्ष बिहार सरकार , भारतीय राजनीति और देश की मीडिया पर किया था । पोस्ट में साफ - साफ बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था कि शुभनारायण दत्त एक सामान्य वर्ग से आते थे , इसलिए किसी नेता ने जरूरी नही समझा की उनके घर के लोगो से मिला जाए । प्रिंट मीडिया तो पहले ही बिकी हुई है वह तो इस घटना का फॉलो-अप तक नहीं देने वाली , इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को इस घटना से क्या पड़ी है ? अगर शुभनारायण दत्त दलित , महादलित या मुस्लिम होते तो अभी तक पूरे देश की मीडिया एक लहर पैदा कर चुकी होती । राज्य तो छोड़िए , केंद्र तक कि सरकारें हिल चुकी होती । लेकिन हम कर्ण कायस्थ है यानी सामान्य वर्ग , हम संख्याबल में कम है । जब हमारी चिंता किसी सरकार को नही है तब मैं अपने आप को क्यों भारतीय मानू , आज से मैं सिर्फ और सिर्फ कायस्थ हूँ । 
यह पोस्ट एक दिन में दो सौ के करीब शेयर हुई । कलम के सिपाही माने जाने वाले कायस्थ समुदाय आज अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी । सबसे शांत मानी जाने वाली जाती कर्ण कायस्थ अब सड़क पर उतरने का विचार कर रही थी । 10 जून 2018 को कर्ण कायस्थ महासभा ने कैंडल मार्च का प्रस्ताव रखा । 10 जून 2018 को गर्दनीबाग में कैंडल मार्च में कर्ण कायस्थ महासभा समिति के सदस्यों के साथ - साथ और भी लोगों ने हिस्सा लिया । बाँह पर काली पट्टी बांध कर हाथ में मोमबत्ती लेकर , सबसे शांत समुदाय आज सड़क पर मार्च कर रही थी । बेशक सँख्या में केवल 100 लोगों ही थे । लेकिन उन्हें अपने अधिकारों का ज्ञान हो रहा था , उनमें एकता का संचार हो रहा था । इस कैंडल मार्च का ज्ञापन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सौंपा गया और उनसे सीबीआई जाँच की माँग की गई । दूसरे दिन  दिल्ली कर्ण कायस्थ महासभा के सदस्यों ने देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह को ज्ञापन सौंपा और उनसे भी सीबीआई जाँच की माँग की गई । पर दोनों जगहों से केवल आश्वासन के सिवा और कुछ नहीं मिला ।


समय के साथ लोग इस हत्याकांड को भूलते जा रहे थे । बीच में कुछ अपवाहें भी उड़ी । सुनने में यह आया कि सीतामढ़ी पुलिस केस का एंगल बदल कर शुभनारायण दत्त के छवि को धूमिल करना चाहती है । एक अपवाह यह भी थी कि इस हत्याकांड के पीछे सीतामढ़ी जिला कल्याण विभाग के नाज़िर का हाथ है ।
शुभनारायण दत्त के परिजनों के साथ - साथ बिहार की जानता को अब लगने लगा था कि इस केस का कुछ नहीं होने वाला है ।
हत्याकांड के 21वें दिन पटना एसएसपी मनु महाराज ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में , सीतामढ़ी जिला कल्याण पदाधिकारी शुभनारायण दत्त के हत्या में शामिल दो कातिलों को पटना के कुर्जी स्तिथ बालुपर से गिरफ्तार किया गया है । साइको किलर राम जी राय उसके साथ लाइनर सोहन ठाकुर को , सीतामढ़ी पुलिस , दीघा थाना पुलिस और सिटी एसएसपी मनु महाराज के नेतृत्व में इन दोनों को गिरफ्तार किया गया । 
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पुलिस के पूछ ताछ में राम जी राय और लाइनर ने यह बताया कि उन्हें हत्या की सुपारी गोपालगंज जेल में बंद चिरंजीवी ने दी थी । चिरंजीवी को हत्या की सुपारी सीतामढ़ी के एक सरकारी स्कूल के शिक्षक मोहम्मद अली अंसारी उर्फ बबलू मास्टर ने दी थी । बबलू मास्टर स्थानीय बीजेपी जिला अल्पसंख्यक अध्य्क्ष शाहीन प्रवीण का पति है । बबलू मास्टर चिरंजीवी से मिलने गोपालगंज जेल गया था । और जेल में ही राम जी राय की मुलाकात बबलू मास्टर से हुई थी । जिला कल्याण पदाधिकारी की हत्या के लिए पाँच लाख का सौदा हुआ था । जिसमें दो लाख एडवांस के तौर पर मिला था , बाकी काम होने के बाद । हत्या के दिन लाइनर सोहन ठाकुर ने ही राम जी राय को फ़ोन से जानकारी दी थी कि जिला कल्याण पदाधिकारी घर के बाहर टहलने के लिए निकल चुके है । उसके बाद राम जी राय , अरुण भगत और विकास यादव पल्सर बाइक पर सवार हो कर कैलाशपुरी के डुमरा थाना के आगे गाड़ी रोक गोली चला दी । पहली गोली राम जी राय ने ही चलाई थी । कुल सात गोली जिला कल्याण पदाधिकारी के शरीर पर चलाई गई थी ।। हत्या करने के बाद राम जी राय और सोहन ठाकुर पटना भाग गए । जहाँ वह दोनों मजदूर बन कर कुर्जी में छिपा हुआ था ।
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इसके बाद एसआइटी की टीम ने बबलू मास्टर के दोनों घरों में छापेमारी की । छापेमारी के दौरान पता चला कि बीजेपी नेत्री शाहीन परवीन बबलू मास्टर की दूसरी पत्नी है । छापेमारी बबलू मास्टर के घर से आपत्तिजनक समान बरामद किया । जिला कल्याण कार्यालय से जुड़े कागजात भी बरामद हुआ । 
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पूरी तफ्तीश हो जाने के बाद पुलिस ने मीडिया को सारी बातें विस्तार से बताते हुए कहा , की बबलू मास्टर के खाते में जिला कल्याण विभाग के तरफ से 70 लाख की राशि तीन किश्तों में जमा की गई । यह पैसे पुराने जिला कल्याण पदाधिकारी गरभु मंडल के कार्यकाल के समय हुआ , जिसकी जानकारी शुभ नारायण दत्त को लग चुकी थी । उन्होंने बबलू मास्टर पर दवाब बनाया की वह सारे पैसे विभाग को वापस कर दे । लेकिन बबलू मास्टर ने पैसे नहीं वापस किए , बल्कि उसने जिला कल्याण पदाधिकारी पर दवाब बनाने लगा कि उसे जिला कल्याण विभाग के तरफ से औऱ राशि आवंटित किया जाए । शुभनारायण दत्त को इस बात की भी भनक लग चुकी थी कि उनके विभाग के कुछ लोग बबलू मास्टर के साथ जुड़े हुए है , इस चीज़ को बाहर लाने के लिए वह अपने स्तर पर जाँच करने लगे । इसी कारण वह विभाग के अन्य लोगों की नज़रों में खटकने लगे । 
राम जी राय की गिरफ्तारी के बाद से बबलू मास्टर फरार है । राम जी राय पर पहले से ही 11 संगीन मामले दर्ज है ।
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बबलू के फरार होने के बाद उसके घर पर कुर्की जब्ती के निर्देश जारी कर दिया गया । पुलिस जाँच में यह बात सामने आई कि शुभनारायण दत्त की हत्या की साजिश दो माह से रची जा रही थी । सीतामढ़ी डीएम ने बताया कि जिला कल्याण विभाग में बहुत बड़े स्तर पर भ्रष्टाचार हो रहा था , इस लिए 2010 से लेकर अभी तक कि सभी फाइलो को देखा जा रहा है ।  बबलू मास्टर को उसके पद से हटाने के लिए पीएमओ तक चिट्ठी भेजी गई थी , फिर भी वह अपने पद पर कायम रहा ।
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पुलिस की बढ़ती दबिश के कारण आखिरकार मुख्य आरोपी बबलू मास्टर ने सीतामढ़ी के सिविल कोर्ट में 29 जून को आत्मसमर्पण कर दिया । जहाँ से उसे 11 जुलाई तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया । हर आरोपी की तरह उसके पास भी अपने बचाव के लिए 15 पेज की मेडिकल रिपोर्ट थी । उसकी पत्नी बीजेपी नेत्री शाहीन परवीन ने तो सीधे सीधे अपने पति को बेकसूर बता दिया , साथ ही उन्होंने इस हत्या की जिम्मेदारी राम जी राय के ऊपर डाल दी । बीजेपी नेत्री ने मीडिया को बताया कि राम जी राय की निजी दुश्मनी के कारण उनके पति बबलू मास्टर का नाम इसमें घसीटा गया ।
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MD. ALI ANSARI ( BABLOO MASTER )

जब इस पूरे मुद्दे पर शुभनारायण दत्त के छोटे बेटे शैलेन दत्त उर्फ रोहित ने कहा कि , इन सभी कातिलों को और जो मुख्य साजिशकर्ता है उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए । उनलोगों ने केवल पिताजी को ही नहीं मारा है । उनलोगों ने मेरी नानी कुसुम चौधरी को भी मारा है । मेरे घर की हँसी को मारा है ।
आगे की बातचीत में वह बताता है कि 30 मई को उसका अंतिम वर्ष का परीक्षा खत्म हो चुका था । वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र है । 31 को वह वाराणसी ने दानापुर आया , दानापुर आते - आते शाम के 7 बज चुके थे । एक दोस्त मुझे स्टेशन पर लेने आया था , उसे खबर मिल चुकी थी कि मेरे पिताजी की हत्या हो चुकी है । पर उसने मुझे नहीं बताया , उसने केवल मुझे मेरे घर तक पहुँचा दिया । घर के बाहर चप्पल जूतों की भीड़ देख कर मुझे कुछ अजीब लगा । तभी अपनी माँ के रोने और चिल्लाने की आवाज़ सुन कर मैं ऊपर की ओर भागा....
कुछ ही देर में मुझे पता लग गया कि मेरे पिताजी अब इस दुनिया मे नही रहे । मैं रोज़ उनसे रात को फ़ोन पर बात किया करता था , आज से किससे बात करूँगा । यह सोच कर मेरा दिमाग फटा जा रहा था । पर मैंने अपने आँसू को रोक लिया औऱ माँ को सम्भालने में लगा गया । कुछ देर बाद मैं अपने रिश्तेदारों के साथ सीतामढ़ी सदर अस्पताल के लिए निकल गया । सीतामढ़ी अस्पताल में मुझे अपने पिताजी की लाश की शिनाख्त करनी थी । उनके माथे पर चार गोलियां मारी गयी थी । एक पेट पर और एक छाती के पास । उनके पूरे शरीर में केवल खून ही दिखाई दे रहा था , चहेरा तो कहीं गायब सा हो गया था । अपनी ज़िंदगी में पहली बार इस तरह के हालात का सामना मैं कर रहा था । पहली बार इतने पुलिस और मीडिया को अपने सामने पाया । अपने पिताजी की लाश को देखर मैं बहुत जोड़ से रोया । ऐसा लग रहा था जैसे मेरे पेट के अंदर कोई मुक्का मार रहा हो । मुझे पिताजी की केवल एक बात ही याद आ रही थी , वह हमेशा कहा करते थे कभी भी हराम का पैसा मत खाना । वह आफिस में चाय भी अपने पैसे का पीते थे । जून में उनका तबादला पटना होने वाला था । पर उन्हें मई के अंतिम दिन मार दिया गया ।
इस घटना की सीबीआई जाँच हो इसके लिए हम सब मुख्यमंत्री , उपमुख्यमंत्री सब से मिले । लेकिन केवल आश्वासन मिला और कुछ नहीं । 
माँ की हालत रोज़ बिगड़ते जा रही थी । वह रह - रह कर चिल्लाने लगती थी । अगल - बगल के लोग उन्हें पागल तक बोलना शुरू कर दिया था । ये चीज़ मेरी नानी कुसुम चौधरी रोज़ देख रही थी । इसी क्रम में 7 जून को नानी सदमा लगने के कारण हृदयाघात हुआ और वह भी हम लोग को छोड़ के चली गयी । मेरा पूरा परिवार टूट चुका था । इस बार मेरी माँ रोना तो चाह रही थी , पर उसके आँसू खत्म हो गए थे । वह केवल चिल्लाती थी । दो दिन तक उसे विश्वास नहीं हुआ उसकी माँ अब इस दुनिया मे नही है ।
10 जून को हुए कैंडल मार्च में यह देख कर पूर्ण विश्वास हो गया मेरे पिताजी सही थे । 20 जून को जब दो कातिल कुर्जी से गिरफ्तार हुए , तब मैं और मेरा परिवार डर गया । क्योंकि मेरे मामा का घर कुर्जी गोशाला में है , और दो दिन पहले ही नानी का काम खत्म हुआ था । हम सब को यही लग रहा था वह दोनों अपराधी मेरे परिवार पर नज़र रखे हुए था । लेकिन ऐसा कुछ नहीं था । अब मुझे केवल न्याय चाहिए ।।।
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खैर , भविष्य का ऊँट किस करवट बैठेगा यह बताना तो मुश्किल लग रहा है । पर एक बात तो पक्की है शुभनारायण दत्त के परिवार को न्याय पाने के लिए एक बहुत लंबी लड़ाई लड़नी होगी । आरोप - प्रत्यारोपण का दौर लंबा चलेगा । जैसा कि पुलिस बता रही है उसके पास सबूत पर्याप्त है , लेकिन क्या पता दस साल बाद इसी केस में सबूत के अभाव में सभी अपराधी बड़ी हो जाए ?  
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शुभनारायण हत्याकांड के एक महीना बीत चुका है । लेकिन कुछ सवाल अभी भी सबके सामने बड़ा सा मुँह लिए खड़ा है । इतने बड़े पदाधिकारी की हत्या की जाँच राज्य सरकार सीबीआई से क्यों नहीं करवा रही है ? 
राम जी राय , और विकास यादव जैसे अपराधियों पर पहले इतने संगीन आरोप थे , तो उनपर नज़र क्यों नही रखी जा रही थी ?
क्या ये मामला सिर्फ 70 लाख का है ? न जाने ऐसे कितने 70 लाख बबलू मास्टर के खाते में गए हो ।
क्या मुख्य आरोपी बबलू मास्टर है ? या ये सिर्फ एक छोटा सिपाही है ? बड़े - बड़े लोग इसमें शामिल है इससे इनकार भी तो नहीं किया जा सकता है ।
शुभनारायण दत्त अपने स्तर पर अपने ऑफिस के लोगों की जाँच कर रहे थे । तो उस जाँच की रिपोर्ट कहाँ है ?
बीजेपी ने अभी तक शाहीन परवीन को उसके अधिकारों से क्यों नहीं हटाया है ? क्या शाहीन परवीन अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल नहीं करेगी अपने पति बबलू मास्टर को बचाने के लिए ?
बबलू मास्टर सीतामढ़ी पुलिस के नाक के नीचे से कोर्ट में जाकर आत्मसमर्पण कर देता है । और सीतामढ़ी पुलिस को इसकी भनक तक नहीं लगती है । क्या इसको सीतामढ़ी पुलिस की नाकामी माना जाए या किसी तरह के सांठ - गांठ माना जाए ?
गोली 31 मई को ही क्यों चली ? जबकि जून में तो उनका तबादला पटना होने वाला था ।।
।।

ऐसे बहुत से सवाल है , जिसके जवाब मिलने की उम्मीद फिलहाल तो कम है । लेकिन एक बात तो स्पष्ट है , बिहार में अपराध का ग्राफ दुबारा ऊपर की ओर जा रहा है । अपराधियों के मन से कानून का डर खत्म होता दिख रहा है ।
अगर बिहार में ऐसे ही दिन दहाड़े हत्या होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब बिहार दुबारा जंगलराज जैसी स्थिति देखने को मिल जाए । जब इतने बड़े अधिकारी ही सुरक्षित नही है तो आम आदमी की सुरक्षा के बारे में सोचना भी एक हास्यास्पद लगता है ।
न खाएंगे , और न खाने देंगे कि नीति पर काम करने का क्या फायदा ? यह केवल सीतामढ़ी जिला कल्याण विभाग की स्थिति नहीं है । पूरे बिहार में भ्रष्टाचार की जड़े मजबूत हो रही है । उसी में से कोई शुभनारायण दत्त जैसा ईमानदार अफसर आता है । और उसे “ईमानदारी का इनाम ....” मिलता है ।
 
( अभिलाष दत्त )

Thursday, July 26, 2018

भारतीय जीवन दर्शन और पुरुषार्थ




इस ब्रह्मांड में केवल धरती एकमात्र ऐसा ग्रह है , जिसपर जीवन संभव है परमात्मा की अनुपम उपहार है ये जीवन धरती पर जीवन सुचारू ढंग से कार्य करे , इसके लिए परमात्मा ने  विविन्न प्रकार के जीव जंतुओं का निर्माण किया   
भूख , भय , निद्रा और प्रजनन यह चार तत्व धरती के सभी जीव - जंतुओं में एक सामान रूप से मौजूद हैं परंतु , मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो बाकी जीव - जंतुओं से अलग है बाकी जीवों की तुलना में वह श्रेष्ठ है  ज्ञान अर्जित करना और उसे संग्रह करना मनुष्य को दूसरे जीवों से अलग करता है मनुष्य में सोचने की शक्ति विद्यामान है मनुष्य विचारों का संग्रह करता है  
इसलिए भारतीय जीवन दर्शन में जीवों की दो श्रेणी बनाई गई है :-

1. भोग श्रेणी

इस श्रेणी में आनेवाले जीवों को सिर्फ भोग से मतलब रहता है अर्थात , इन्हें ज्ञान अर्जित करने से कोई मतलब नहीं होता है प्रजनन के लिए ये अलग - अलग साथियों के खोज में रहते है खुले में मल मूत्र का त्याग करते हैं जहाँ खाने की वस्तु दिखती है उसपर यह टूट पड़ते है  
आम बोलचाल की भाषा में इन्हेंजानवरशब्द से संम्बोधित किया जाता है जानवर अपने विचारों का संग्रह नहीं करता है

2. मोक्ष श्रेणी

इस श्रेणी में वह जीव आते है , जो इस लोक में ज्ञान अर्जित कर के अपना परलोक को भी सुधारने का प्रयास करते हैं ऐसे जीवों को मनुष्य कहा जाता है मनुष्य अपने विचारों का आदान - प्रदान के साथ इसे संग्रह भी करता है ज्ञान अर्जित कर के उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित भी करता है समाज में रह कर जीवन - यापन करता है  
 ।।।
 भारतीय दर्शन और सनातन परंपरा के अनुसार मनुष्य के जीवन में नैतिकता होना बहुत जरूरी है बिना नैतिकता के मनुष्य का जीवन जानवर समान है नैतिकता से ही मनुष्य यह फैसला कर पाता है , कि यह चीज़ उचित है और यह अनुचित जो मनुष्य अपने जीवन मे नैतिकता को पूर्ण रूप से ढाल ले उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ हो जाता है नैतिकता का संबंध ज्ञान से है
नैतिकता शब्द का निर्माण नीति से हुई है नीति जिसमें नी मूल धातु है , और इत्ती प्रत्यय है नी का अर्थ होता है , “लक्ष्य तक पंहुचना” , और इत्ती का अर्थ होता हैलक्ष्य तक पंहुचाने का सूत्र 
भारतीय जीवन दर्शन में लक्ष्य केवल वही मनुष्य पा सकता है जिसमें पुरुषार्थ की भावना निहित हो   भारतीय जीवन दर्शन में लक्ष्य प्रप्ति के लिए पुरुषार्थ के चार मूल तत्व बताएं गए हैं
1. धर्म ,
2. अर्थ ,
3. काम,
4. मोक्ष 

1. धर्म

यतो अभ्युदय नि: श्रेयस सिद्धि सह धर्म:”

अर्थात जिससे हमारे जीवन का समग्र भौतिक उत्कर्ष हो उसको धर्म कहते हैं
यह उस व्यवहार को इंगित करती है जिससे संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त हो

मनुने मानव धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है :-
    धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध करना) ; ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां समाचरेत्
 अर्थात , धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।

2. अर्थ 

मनुष्याणां वृत्तिः अर्थः (कौटिल्यीय अर्थशास्त्र)

अर्थात जो भी विचार और क्रियाएं भौतिक जीवन से संबंधित है उन्हें 'अर्थ' की संज्ञा दी गयी है।
भारतीय दर्शन में अर्थ का तात्पर्य केवल धन संचयन से नहीं है इसके लिए भारतिय दर्शन में व्यापक दृष्टि के तौर पर देखती है हम जो प्रकृति से प्राप्त करते हैं उसका उपयोग हम अपने लिए और अपने समाज के लिए करेंगे , साथ ही भविष्य के लिए भी सोचेंगे जब तक केवल अपने बारे में सोचेंगे तब तक प्रकृति का दोहन होते रहेगा भविष्य और समाज के बारे में जब हम सोचना शुरू कर देंगे तब जा कर हम प्रकृति को सुरक्षित करने के लिए आगे सकेंगे
धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का आधार ही धन है। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यो के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यो, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा का अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक सम्पदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलत को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने समाज के लिए अनेकानेक रोगों कष्टों को जन्म देता है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें
उदहारण के तौर पर , हम गौ माता से दूध लेते हैं बदले में उन्हें खाना देते हैं , देख भाल करते हैं उनका आशीर्वाद भी लेते हैं जितना ले रहे है उससे अधिक लौटाने का गुण हमारे अंदर होना चाहिए

3. काम

काम सुनते ही बहुतों के दिमाग संभोग का विचार उत्पन्न हो जाता है ऐसा सोचना अल्पज्ञानी होने का लक्षण हैं भारतीय दर्शन में काम के बारे में कहा गया है , “जो सुख है वही काम है सुख केवल संभोग से प्राप्त नहीं होता है सुख पाने के लिए अनेक तत्व हैं , जिसमे संभोग सिर्फ एक तत्व से अधिक कुछ नहीं है

महर्षि वात्स्यायन के अनुसार,

श्रोत्रत्ववच्क्षुर्जिह्वा ध्राणानामात्म संयुक्ते नमन साधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्जानुकूल्यतः प्रवृतिः कामः।
स्पर्शविशेषविषयात्तवस्यामिमानिकसुखानुविद्धा। फलवत्यर्थप्रलीतिःप्राधान्यात्कामःतंकामसूत्रान्नगरिकजनसमवियच्च प्रतिपद्येत।
एषां समवाये पूर्वः पूर्वो मरियान् अर्थस्व राज्ञः। तन्मूलवाल्लोकयात्रायाः। वेश्यायाश्वेतित्रिवर्गप्रतिपत्तिः।
अर्थात् काम ज्ञान के माध्यमों का उल्लेख करते हुये कहा गया है कि आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित तत्व, चक्षु, जिव्हा, तथा ध्राण तथा इन्द्रियों के साथ अपने अपने विषय - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गंध में अनुकूल रूप से प्रवृत्तिकामहै। इसके अलावा स्पर्श से प्राप्त
अभिमानिक सुख के साथ अनुबद्ध फलव्रत अर्थ प्रीतति काम कहलाता है। इसके अलावा अर्थ, धर्म तथा काम की तुलनात्मक श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि त्रिवर्ग समुदाय में पर से पूर्व श्रेष्ठ है। काम से श्रेष्ठ अर्थ है तथा अर्थ से श्रेष्ठ धर्म है। परन्तु व्यक्ति व्यक्ति के अनुसार यह अलग-अलग होता है। माध्वाचार्य के अनुसार विषयभेद के अनुसार काम दो प्रकार का होता है। इनमें से प्रथम को सामान्य काम कहते हैं। जब आत्मा की शाब्दिक विषयों के भोगने की इच्छा होती है तो उस समय आत्मा का प्रयत्न गुण उत्पन्न होता है। अर्थात आत्मा सर्वप्रथम मन से संयुक्त होती है तथा मन विषयों से। स्रोत, त्वच, चक्षु, जिव्हा तथा ध्राण इन्द्रिय की क्रमशः स्पर्श, रूप, रस, गन्ध में प्रवृत्त होते हैं। काम की इस प्रकृति में न्याय वैशेषिक मत अधिक झलकता है। इसके अनुसार शब्दादि विषयणी बुद्धि ही विषयों के भोग के स्वभाव वाली बुद्धि ही विषयों के भोग वाली स्वभाव वाली होने के कारण उपचार से कम कही जाती है। अर्थात् आत्मा बुद्धि के द्वारा विषयों को भोगता हुआ सुख को अनुभव करता है। जो सुख है, सामान्य रूप से वही काम है।

4. मोक्ष 

मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है इसमें पूर्वज , पितरों और परमात्मा को याद करते है
 भारतीय दर्शन में  नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है
संसार रूपी चक्र को पार कर के आत्मा का मिलन परमात्मा से होता है  , और उसका अभिन्न अंग बन जाता है इसी प्रक्रिया को मोक्ष कहा गया है दोनों के बीच का सारा दूरी खत्म हो जाती है
भारतीय परंपरा में इसका सीधा सीधा मतलब है मुक्ति , यानी संसार के आवागमन से दूर हो जाना


( अभिलाष दत्त)