इस ब्रह्मांड में केवल धरती एकमात्र ऐसा ग्रह है , जिसपर जीवन संभव है । परमात्मा की अनुपम उपहार है ये जीवन । धरती पर जीवन सुचारू ढंग से कार्य करे , इसके लिए परमात्मा ने विविन्न प्रकार के जीव जंतुओं का निर्माण किया ।
भूख , भय , निद्रा और प्रजनन यह चार तत्व धरती के सभी जीव - जंतुओं में एक सामान रूप से मौजूद हैं । परंतु , मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जो बाकी जीव - जंतुओं से अलग है । बाकी जीवों की तुलना में वह श्रेष्ठ है । ज्ञान अर्जित करना और उसे संग्रह करना मनुष्य को दूसरे जीवों से अलग करता है । मनुष्य में सोचने की शक्ति विद्यामान है । मनुष्य विचारों का संग्रह करता है ।
इसलिए भारतीय जीवन दर्शन में जीवों की दो श्रेणी बनाई गई है :-
1. भोग श्रेणी
इस श्रेणी में आनेवाले जीवों को सिर्फ भोग से मतलब रहता है । अर्थात , इन्हें ज्ञान अर्जित करने से कोई मतलब नहीं होता है । प्रजनन के लिए ये अलग - अलग साथियों के खोज में रहते है । खुले में मल मूत्र का त्याग करते हैं । जहाँ खाने की वस्तु दिखती है उसपर यह टूट पड़ते है ।
आम बोलचाल की भाषा में इन्हें “जानवर” शब्द से संम्बोधित किया जाता है । जानवर अपने विचारों का संग्रह नहीं करता है ।
2. मोक्ष श्रेणी
इस श्रेणी में वह जीव आते है , जो इस लोक में ज्ञान अर्जित कर के अपना परलोक को भी सुधारने का प्रयास करते हैं । ऐसे जीवों को मनुष्य कहा जाता है । मनुष्य अपने विचारों का आदान - प्रदान के साथ इसे संग्रह भी करता है । ज्ञान अर्जित कर के उसे आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित भी करता है । समाज में रह कर जीवन - यापन करता है ।
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भारतीय दर्शन और सनातन परंपरा के अनुसार मनुष्य के जीवन में नैतिकता होना बहुत जरूरी है । बिना नैतिकता के मनुष्य का जीवन जानवर समान है । नैतिकता से ही मनुष्य यह फैसला कर पाता है , कि यह चीज़ उचित है और यह अनुचित । जो मनुष्य अपने जीवन मे नैतिकता को पूर्ण रूप से ढाल ले उसका जीवन सर्वश्रेष्ठ हो जाता है । नैतिकता का संबंध ज्ञान से है ।
नैतिकता शब्द का निर्माण नीति से हुई है । नीति जिसमें नी मूल धातु है , और इत्ती प्रत्यय है । नी का अर्थ होता है , “लक्ष्य तक पंहुचना” , और इत्ती का अर्थ होता है “लक्ष्य तक पंहुचाने का सूत्र” ।
भारतीय जीवन दर्शन में लक्ष्य केवल वही मनुष्य पा सकता है जिसमें पुरुषार्थ की भावना निहित हो । भारतीय जीवन दर्शन में लक्ष्य प्रप्ति के लिए पुरुषार्थ के चार मूल तत्व बताएं गए हैं ।
1. धर्म ,
2. अर्थ ,
3. काम,
4. मोक्ष
1. धर्म
“यतो अभ्युदय नि: श्रेयस सिद्धि सह धर्म:”
अर्थात जिससे हमारे जीवन का समग्र व भौतिक उत्कर्ष हो उसको धर्म कहते हैं ।
यह उस व्यवहार को इंगित करती है जिससे संसार में प्रतिष्ठा प्राप्त हो ।
“मनु” ने मानव धर्म के दस लक्षण बताते हुए कहा है :-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो,
दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस मानव धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि,
परेषां न समाचरेत् ॥
अर्थात , धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
2. अर्थ
“मनुष्याणां वृत्तिः अर्थः ” । (कौटिल्यीय अर्थशास्त्र)
अर्थात जो भी विचार और क्रियाएं भौतिक जीवन से संबंधित है उन्हें 'अर्थ' की संज्ञा दी गयी है।
भारतीय दर्शन में अर्थ का तात्पर्य केवल धन संचयन से नहीं है । इसके लिए भारतिय दर्शन में व्यापक दृष्टि के तौर पर देखती है । हम जो प्रकृति से प्राप्त करते हैं उसका उपयोग हम अपने लिए और अपने समाज के लिए करेंगे , साथ ही भविष्य के लिए भी सोचेंगे । जब तक केवल अपने बारे में सोचेंगे तब तक प्रकृति का दोहन होते रहेगा । भविष्य और समाज के बारे में जब हम सोचना शुरू कर देंगे तब जा कर हम प्रकृति को सुरक्षित करने के लिए आगे आ सकेंगे ।
धर्म के बाद दूसरा स्थान अर्थ का है। अर्थ के बिना, धन के बिना संसार का कार्य चल ही नहीं सकता। जीवन की प्रगति का आधार ही धन है। उद्योग-धंधे, व्यापार, कृषि आदि सभी कार्यो के निमित्त धन की आवश्यकता होती है। यही नहीं, धार्मिक कार्यो, प्रचार, अनुष्ठान आदि सभी धन के बल पर ही चलते हैं। अर्थोपार्जन मनुष्य का पवित्र कर्त्तव्य है। इसी से वह प्रकृति की विपुल संपदा का अपने और सारे समाज के लिए प्रयोग भी कर सकता है और उसे संवर्द्धित व संपुष्ट भी। पर इसके लिए धर्माचरण का ठोस आधार आवश्यक है। धर्म से विमुख होकर अर्थोपार्जन में संलग्न मनुष्य एक ओर तो प्राकृतिक सम्पदा का विवेकहीन दोहन करके संसार के पर्यावरण संतुलत को नष्ट करता है और दूसरी ओर अपने क्षणिक लाभ से दिग्भ्रमित होकर अपने व समाज के लिए अनेकानेक रोगों व कष्टों को जन्म देता है। धर्म ने ही हमें यह मार्ग सुझाया है कि प्रकृति से, समाज से हमने जितना लिया है, अर्थोपार्जन करते हुए उससे अधिक वापस करने को सदैव प्रयासरत रहें ।
उदहारण के तौर पर , हम गौ माता से दूध लेते हैं । बदले में उन्हें खाना देते हैं , देख भाल करते हैं । उनका आशीर्वाद भी लेते हैं । जितना ले रहे है उससे अधिक लौटाने का गुण हमारे अंदर होना चाहिए ।
3. काम
काम सुनते ही बहुतों के दिमाग संभोग का विचार उत्पन्न हो जाता है । ऐसा सोचना अल्पज्ञानी होने का लक्षण हैं । भारतीय दर्शन में काम के बारे में कहा गया है , “जो सुख है वही काम है” । सुख केवल संभोग से प्राप्त नहीं होता है । सुख पाने के लिए अनेक तत्व हैं , जिसमे संभोग सिर्फ एक तत्व से अधिक कुछ नहीं है ।
महर्षि वात्स्यायन के अनुसार,
श्रोत्रत्ववच्क्षुर्जिह्वा ध्राणानामात्म संयुक्ते नमन साधिष्ठितानां स्वेषु स्वेषु विषयेष्जानुकूल्यतः प्रवृतिः कामः।
स्पर्शविशेषविषयात्तवस्यामिमानिकसुखानुविद्धा। फलवत्यर्थप्रलीतिःप्राधान्यात्कामःतंकामसूत्रान्नगरिकजनसमवियच्च प्रतिपद्येत।
एषां समवाये पूर्वः पूर्वो मरियान् अर्थस्व राज्ञः। तन्मूलवाल्लोकयात्रायाः। वेश्यायाश्वेतित्रिवर्गप्रतिपत्तिः।
अर्थात् काम ज्ञान के माध्यमों का उल्लेख करते हुये कहा गया है कि आत्मा से संयुक्त मन से अधिष्ठित तत्व, चक्षु, जिव्हा, तथा ध्राण तथा इन्द्रियों के साथ अपने अपने विषय - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, तथा गंध में अनुकूल रूप से प्रवृत्ति ‘काम’ है। इसके अलावा स्पर्श से प्राप्त
अभिमानिक सुख के साथ अनुबद्ध फलव्रत अर्थ प्रीतति काम कहलाता है। इसके अलावा अर्थ, धर्म तथा काम की तुलनात्मक श्रेष्ठता का प्रतिपादन करते हुये कहा गया है कि त्रिवर्ग समुदाय में पर से पूर्व श्रेष्ठ है। काम से श्रेष्ठ अर्थ है तथा अर्थ से श्रेष्ठ धर्म है। परन्तु व्यक्ति व्यक्ति के अनुसार यह अलग-अलग होता है। माध्वाचार्य के अनुसार विषयभेद के अनुसार काम दो प्रकार का होता है। इनमें से प्रथम को सामान्य काम कहते हैं। जब आत्मा की शाब्दिक विषयों के भोगने की इच्छा होती है तो उस समय आत्मा का प्रयत्न गुण उत्पन्न होता है। अर्थात आत्मा सर्वप्रथम मन से संयुक्त होती है तथा मन विषयों से। स्रोत, त्वच, चक्षु, जिव्हा तथा ध्राण इन्द्रिय की क्रमशः स्पर्श, रूप, रस, गन्ध में प्रवृत्त होते हैं। काम की इस प्रकृति में न्याय वैशेषिक मत अधिक झलकता है। इसके अनुसार शब्दादि विषयणी बुद्धि ही विषयों के भोग के स्वभाव वाली बुद्धि ही विषयों के भोग वाली स्वभाव वाली होने के कारण उपचार से कम कही जाती है। अर्थात् आत्मा बुद्धि के द्वारा विषयों को भोगता हुआ सुख को अनुभव करता है। जो सुख है, सामान्य रूप से वही काम है।
4. मोक्ष
मोक्ष को परम पुरुषार्थ माना गया है । इसमें पूर्वज , पितरों और परमात्मा को याद करते है ।
भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है ।
संसार रूपी चक्र को पार कर के आत्मा का मिलन परमात्मा से होता है , और उसका अभिन्न अंग बन जाता है । इसी प्रक्रिया को मोक्ष कहा गया है । दोनों के बीच का सारा दूरी खत्म हो जाती है ।
भारतीय परंपरा में इसका सीधा सीधा मतलब है मुक्ति , यानी संसार के आवागमन से दूर हो जाना ।
( अभिलाष दत्त)
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