Thursday, July 26, 2018

वजूद

Image may contain: 3 people, people smiling, text




साल 2018 के तीसरे शनिवार 20 जनवरी को , “पाटलिपुत्र सिने सोसाइटी” के तरफ से “विश्व संवाद केंद्र” , फ्रेजर रोड पटना में , शाम 3 बजे से फ़िल्म “वजूद” का प्रसारण किया गया ।
1998 में आई “एन. चंद्रा” की लिखित एवं निर्देशन में बनी फ़िल्म “वजूद” में , मुख्य कलाकार नाना पाटेकर , माधुरी दीक्षित , मुकुल देव , रम्या कृष्णन थीं । 

फ़िल्म के बारे में बात शुरू करने से पहले , इस फ़िल्म के निर्देशन और स्क्रिप्ट पर बात करते है । इस तरह की रचना को लिखना और उसे अपने मन में चित्रों के माध्यम से तैयार करना । अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती है । इस जगह पर , निर्देशक “एन. चंद्रा” सफल साबित हुए हैं ।
फ़िल्म में इतने सारे पहलू है की किसी एक पहलू को लेकर बात करना , फ़िल्म के साथ नाइंसाफी होगी । फिर भी हम नाना पाटेकर के पहलू को लेकर बात करते है । क्योंकि पूरी फ़िल्म उनके इर्द - गिर्द ही घूमती दिखती हैं । साहित्य और रंगमंच के जीवन में एक छिपा हुआ काला पक्ष होता है । ऐसे बहुत से लेखक हुए या रंगमंच के सितारे हुए जो अपने पात्रों को जीने के लिए किसी भी हद तक गए । औऱ जब हद परकाष्ठा पर पहुँच जाती है तो वह इंसान , इस समाज के बनाये नियमों से ऊपर उठ जाता है । हमारा समाज उसे मुजरिम समझ लेता है । और समझना भी चाइए , क्योंकि “मल्हार” ( नाना पाटेकर) एक थिएटर का डायरेक्टर जो अपने किरदार में इतना घुस चुका रहता है , उसे असलियत का ज्ञान खत्म हो जाता है । वह नाटक रचते - रचते खुद को ब्रह्मा समझने लगता है । और जब इंसान के बीच मे रहने वाला में से कोई एक खुद को ब्रह्मा होने का दावा करने लगे तो उसका अंतिम ठिकाना जेल होता है ।
जेल से निकलने के बाद वह अपने आप को तिरष्कृत नज़रो से देखने लगता है । वह इस पूरे शहर से बदला लेना चाहता है । अब यह पूरा शहर उसके लिए रंगमंच है । अब वह यहाँ तरह - तरह के नाटक कर के शहर के प्रशासन को परेशान कर के रख देगा । पूरा शहर अब उसके नाटक का हिस्सा हो चुका है । पूरे शहर को अब वह अपने निर्देशन पर अभिनय करने पर मजबूर कर रहा है ।
इस फ़िल्म को आप और चार पहलुओं के आधार पर देख सकते है । अपूर्वा ( माधुरी दीक्षित ) के नज़र से , इंस्पेक्टर निहाल ( मुकुल देव ) , सोफिया ( रम्या कृष्णन) और अंतिम पहलू मल्हार के बाप के पहलू के हिसाब से ।
हमें यह फ़िल्म क्यों देखनी चाइए ?
इसका केवल एक ही जवाब है , “नाना पाटेकर” । उनकी एक्टिंग और संवाद अदायगी का कोई जोड़ नहीं है । पागल बच्चे का पात्र का अभिनय कर के , नाना पाटेकर एक्टिंग के उस ऊंचाई पर जाते हुए दिखते है । मल्हार की एक्टिंग अगर आपने नही देखी , तो आप बहुत कुछ मिस करेंगे । “मेथड एक्टिंग” करने वाले या यह सीखने वालों के लिए यह सिर्फ एक पात्र नहीं , पूरी की पूरी अपने आप में “यूनिवर्सिटी” है ।
कुछ चीज़ें जो अंतिम में परेशान करती है । शापित देवता नामक नाटक का अंतिम में राज़ खुलना । पूरी फ़िल्म में मल्हार के द्वारा अपने हाथों की उंगलियों को बजाते रहना । मल्हार का यह कहना , “हम सब अस्वाथमा है” । और इसी फ़िल्म में यह कहना “मैं ही ब्रह्मा हूँ” , विरोधाभाष की स्तिथी उत्पन्न करती है ।
बाप द्वारा पूरे मोहल्ले में जलील करता हुआ दृश्य , एक कलाकार की नज़रों से देखने पर , आपको गुस्से वाली भावना में ला सकती हैं । फ़िल्म का अंत , अपने आप में “मास्टरपीस” है ।
यह फ़िल्म केवल एक बार देखने लायक फिल्मों वाली नहीं है । फिल्मों के शौकीन रखने वाले इस फ़िल्म को बार - बार जरूर देखना चाहेंगे ।
समीक्षक :- अभिलाष दत्ता

No comments:

Post a Comment